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५५८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
राग और द्वेष सम्बन्ध जोड़ता है, वही बन्धन है
किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, विचार, विषय आदि के प्रति यदि मन में अनुकूलता महसूस होती है तो रागरूप सम्बन्ध उसके साथ जुड़ जाता है, यदि उस वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, विचार आदि के प्रति मन में प्रतिकूलता का अनुभव होता है तो उसके साथ द्वेषरूप सम्बन्ध जुड़ जाता है। यह सम्बन्ध ही बन्धन है। प्रवचनसार वृत्ति और मूल में स्पष्ट कहा गया है - "इस प्रकार राग का या द्वेष का ( वस्तु या व्यक्ति आदि के प्रति ) जीव का परिणाम ही बन्ध का कारण है । २ " परिणाम से बन्ध होता है, परिणाम हैं- राग, द्वेष और मोह से युक्त । मोह और द्वेष, ये दोनों अशुभपरिणाम हैं, जब कि राग शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार के परिणाम वाला होता है।" इसलिए 'श्रमणसूत्र' में कहा गया- " दो बन्धनों का प्रतिक्रमण करता हूँ, रागरूप बन्धन और द्वेषरूप बन्धन से। "३ ' प्रशमरति' में राग- - द्वेष को बन्ध का कारण बताते हुए कहा गया है कि - " जो मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में शुभ-अशुभभाव की स्थापना (कल्पना) करता है, वह चाहे रागयुक्त हो या द्वेषयुक्त, उसके लिये बन्धन का कारण बनता है । '
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राग-द्वेष : दुखवर्द्धक, चारित्रनाशक, सद्गुणशत्रु
व्यक्ति जितना-जितना किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति राग, लालसा व गृद्धि करता जाता है, उतना-उतना ही अपने लिए दुःख के बीज बोता जाता है। वर्तमान युग का मानव प्रायः शरीर और इन्द्रियों को ही सब कुछ मानकर चल रहा है। इन्हीं की परिचर्या में वह सब कुछ न्योछावर करने को तैयार होता है। शरीर चाहे अत्यधिक आसक्ति और रागभाव से नष्ट हो जाए, जिसको विरोधी या शत्रु अथवा विपक्षी मान लिया उसके प्रति द्वेष और वैर-विरोध करने में चाहे सारी सम्पत्ति नष्ट
१. कर्मसिद्धान्त (कन्हैयालाल लोढ़ा), पृ. १२ २. एवं रागपरिणाम एव बन्धकारणं ज्ञात्वा निरन्तरं भावना कर्तव्येति ।
विशुद्ध - ज्ञान - दर्शन - स्वभाव - निजात्मतत्त्वे -प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति १७९ / २४३/९
३. पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिं, रागबंधणेणं, दोसबंधणेणं । " - आवश्यक सूत्र में श्रमणसूत्र ।
देखें - प्रवचनसार गा. १८० में
परिणामादो बंधो, परिणामो राग-दोस - मोह - जुत्तो । असुहो मोह-पदोसो, सुहो व असुहो हवदि रागो ॥ ४. यस्मिन्निन्द्रिय-विषये शुभमशुभं वा निवेशयति भावम् । रक्तो वा दिष्टो वा स बन्धहेतुर्भवति तस्य ॥ ४३ ॥
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- प्रशमरति
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