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ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५४९
तिर्यंच और देव के बीच भी ऋणानुबन्ध का उदय तिर्यंच और देव के बीच भी ऋणानुबन्ध का शुभ या अशुभ उदय होता है। इस प्रकार का उदय बहुत ही विरल होता है। सामान्यतया पशुओं और देव-देवी के बीच ऋणानुबन्ध के उदय का प्रसंग अनुभवगम्य न होने से जानने में नहीं आता। फिर भी पशुओं-पक्षियों के साथ देववर्ग का शुभाशुभ ऋणानुबन्ध उदय संभव है।
मनुष्य भव में कोई दो व्यक्ति साथ मिलकर बाह्य धर्माराधन करते हैं। उनमें से कोई एक व्यक्ति प्रथम देहत्याग करके देव बन जाता है, तो दूसरे अपने साथी को धर्म-निमित्त से सहायता करने के लिए वचनबद्ध होता है अथवा दो साथियों में से एक साथी मायाकपटपूर्वक बाह्य धर्माराधन उससे अधिक करता है और गुप्तता रखता है। फिर आयुष्य पूर्ण होने पर मायाकपट के फलस्वरूप मरकर वह पशु योनि या पक्षि योनि में जन्म लेता है। मगर दूसरा सरलतापूर्वक धर्माराधन करता हुआ आयुष्य पूर्ण होने पर देब बनता है।
देवयोनि में गया हुआ जीव वचनबद्ध होने से ऋणानुबन्ध के उदय में आते ही पशु योनि में पैदा हुए अपने साथी को अवधिज्ञान के बल से ढूँढ़ लेता है। उसे धर्मभाव की प्रेरणा करता है, धर्मभाव में दृढ़ता उत्पन्न कराता है। पूर्व (मनुष्य) भव के अपने शरीर की विकुर्वणा करके उससे अपना पूर्वसम्बन्ध बताकर धर्मवचन सुनाता है। फलतः पशुयोनि के जीव के अन्तर् में जागृति उत्पन्न होती है। वह अपने द्वारा सेवन किये हुए मायाकपट के लिए मन ही मन पश्चात्ताप करता है, दोषों के लिए क्षमायाचना करता है। इस प्रकार की आन्तरिक शुद्धि के फलस्वरूप वह भी पशु आयु पूर्ण करके देवगति में चला जाता है। कई प्रकार हैं, शुभ उदय के। यहाँ तो समझने के लिए यह रेखाचित्र प्रस्तुत किया है। '. अशुभ उदय-किन्हीं दो जीवों में परस्पर दृढ़ वैर बन्ध हो गया हो, उन दोनों का दूसरी गति में एक दूसरे से सम्बन्ध में आने का योग हो, तब कर्म उदय में न आए, किन्तु जब वह उदय में आए तब एक देव और दूसरा तिर्यंच बनता है। ऐसी स्थिति में उस अशुभ ऋण को वसूलने का कार्य शुरू हो जाता है। वह देव तिर्यंच के जीव को नाना प्रकार से त्रास देता है, डराता है, मारता-पीटता है, आहारादि में विघ्न डालता है, उसे बेसुध कर डालता है, हिंस्र पश का रूप धारण करके उसके अंगों का छेदन-भेदन करता है, उसे चोट पहुंचाता है। ये सब यातनाएँ बेचारे मूक पशु को अशुभ उदय के कारण परवश होकर सहनी पड़ती हैं। उसकी दयनीय दशा पर वैरी देव को जरा भी दया नहीं आती, प्रत्युत उसकी वेदना, चीख-पुकार, पीड़ा देखकर वह प्रसन्न होता है। वैर-परम्परा बढ़ा लेता है।
१. 'ऋणानुबन्ध' पृ. ८३ से ८७ तक
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