Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 542
________________ ५२२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ नोकषाय और चार संज्वलन - कषायों में अन्तकरण करता है । फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादिषट्क, इन नोकषायों का क्षपण करता है। तदनन्तर पुरुषवेद के तीन खण्ड करके दो खण्डों का एक साथ क्षपण करता है; और तीसरे खण्ड को संज्वलन क्रोध में मिला देता है। यह क्रम पुरुषवेद के उदय से ( क्षपक-) श्रेणि-आरोहण करने वाले के लिये है । यदि स्त्री क्षपक श्रेणी पर आरोहण करती है। तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करती है। उसके पश्चात् क्रमशः पुरुषवेद, ६ नोकषाय एवं स्त्रीवेद का क्षपण करती है। यदि नपुंसक श्रेणी - आरोहण करता है तो वह पहले स्त्रीवेद का, तदनन्तर पुरुषवेद, छह नोकषाय तथा अन्त में नपुंसकवेद का क्षपण करता है ।२ निष्कर्ष यह है कि जिस वेद के उदय से श्रेणि चढ़ता है, उसका क्षपण सबसे अन्त में होता है । वेदत्रय के क्षपण के बाद संज्वलन - क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षपण उक्तः: प्रकार से करता है। अर्थात् -संज्वलन क्रोध के तीन खण्ड करके दो खण्डों का तो एक साथ क्षपण करता है और तीसरे खण्ड को संज्वलन मान में मिला देता है। इस प्रकार संज्वलन मान के तीन खण्ड करके दो खण्डों का एक साथ क्षय कर मान के तीसरे खण्ड को संज्वलन माया में मिला देता है। इसी प्रकार की प्रक्रिया से माया के तीसरे खण्ड को लोभ में मिला देता है । प्रत्येक के क्षपण करने का काल अन्तर्मुहूर्त है और श्रेणिकाल अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु वह अन्तर्मुहूर्त बड़ा है। तदनन्तर संज्वलन लोभ के तीन खण्ड करके दो खण्डों का तो एक साथ क्षपण करता है, किन्तु तीसरे खण्ड के संख्यात खण्ड करके चरम खण्ड के सिवाय शेष खण्डों को भिन्न-भिन्न समय में खपाता है । फिर उस चरम खण्ड के भी असंख्यात खण्ड करके उन्हें दसवें गुणस्थान में भिन्न-भिन्न समय में खपाता है। इस प्रकार लोभकषाय का पूर्णतया क्षय होने पर अनन्तर समय में ही क्षीणकषाय हो जाता है । ३ १. पंचम कर्मग्रन्थ, क्षपक श्रेणिद्वार व्याख्या ( मरुधरकेसरी जी), पृ. ३९१ से ३९३ २. किसी किसी का मत है कि क्षपक श्रेणि-आरोहक पहले १६ कषाय-3 - प्रकृतियों के ही क्षय का प्रारम्भ करता है और उनके मध्य में ८ कषायों का क्षय करता है। तत्पश्चात् १६ प्रकृतियों का क्षय करता है। ३. (क) गो. कर्मकाण्ड में मतान्तर का उल्लेख णत्थि अणं उवसमणे खवगापुव्वं खवित्तु अट्ठाय । पच्छा सोलादीणं खवणं, इदि केइ णिद्दिट्टं ॥ ३९९ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only 1 (शेष पृष्ठ ५२३ पर) www.jainelibrary.org

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