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वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५२७ उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि दोनों की मोक्ष की ओर दौड़ - इस प्रकार उपशम श्रेणि और क्षपकश्रेणि दोनों के माध्यम से मोक्ष की ओर मुमुक्षु साधक की दौड़ शुरू होती है; परन्तु उपशम श्रेणि के सहारे आरोहण करने वाले धावक मोहकर्म की प्रकृतियों के तूफानों को क्रमशः दबाते-उपशम करते हुए दौड़ लगाते हैं, फलतः वे प्रकृतियाँ पुनः निमित्त पाकर उफन जाती हैं, और साधक के कदमों को डगमगा कर स्खलित कर देती हैं, नीचे गिरा देती हैं। फिर भी यदि वह आगे जाकर संभल जाता है तो पुनः क्षपक श्रेणी के सहारे दौड़ लगाकर मोक्ष के शिखर पर पहुँच जाता है, जबकि क्षपक श्रेणि के सहारे सीधी दौड़ लगाने वाले साधक मोक्ष के शिखर पर पहुँच कर ही विश्राम लेते हैं। वे मोहकर्म की तूफानी प्रकृतियों को सर्वथा नष्ट करने के साथ शेष तीन घातिकर्मों और फिर अघाति कर्मों का भी सर्वथा क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं।
(पृष्ठ ५२६ का शेष) .. (ख) तेरह प्रकृतियों का क्षय मानने वालों की युक्ति यह है कि तद्भवमोक्षगामी के
अन्तिम समय में आनुपूर्वी सहित १३ प्रकृतियों की सत्ता उत्कृष्टरूप से रहती है। किन्तु जघन्य से तीर्थंकरनाम प्रकृति के सिवाय १२ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इसका कारण यह है कि मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली भवविपाकी मनुष्यायु, क्षेत्रविपाकी मनुष्यानुपूर्वी, जीवविपाकी शेष नौ प्रकृतियों तथा साता-असाता वेदनीय में से कोई एक, उच्चगोत्र, ये १३ प्रकृतियाँ तद्भवमोक्षगामी के अन्तिम समय में क्षय को प्राप्त होती हैं। द्विचरम समय में नष्ट नहीं होतीं। अतएव तद्भव मोक्षगामी जीव के अन्तिम समय में उत्कृष्ट १३ प्रकृतियों की और जघन्य १२ प्रकृतियों की सत्ता रहती है।-पंचम कर्मग्रन्थ परिशिष्ट
(क्षपक श्रेणि) पृ. ४५३, ४५४ (ग) गोम्मटसार (क.) गा. ३४१ में ऐसा ही लिखा है-"उदयगबार णराणू तेरस
चरिमम्हि वोच्छिण्णा।'-अर्थात्-उदयगत १२ प्रकृतियाँ और एक मनुष्यानुपूर्वी, ये १३ प्रकृतियाँ अयोगि केवली के अन्तिम समय में अपनी सत्ता से छूटती हैं।
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