Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 550
________________ ५३० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ । इसी प्रकार कोई शत्रु-मित्र, ग्राहक-व्यापारी, पिता-पुत्र, भाई-भाई आदि अनेक रिश्तों-सम्बन्धों के रूप में आकर एक परिवार, कुटुम्ब, नगर-ग्राम, जाति, सम्प्रदाय, धर्म, समाज, संस्था, या राष्ट्र में जुड़ जाते हैं। कई लोग इस मेले-मिलन को आश्चर्य की दृष्टि से देखते हैं। उनको अधिक आश्चर्य तो तब होता है, जब वे किसी धर्मात्मा, नीति-न्यायपरायण, परोपकारी पिता के यहाँ क्रूर, उद्दण्ड, अविनीत, उड़ाऊ या दुर्व्यसनी पुत्र का जन्म देखते हैं, अथवा इसके विपरीत बिलकुल अनपढ़, गवार और रूढ़िग्रस्त ग्रामीण पिता के यहाँ विद्वान्, सदाचारी, विचारक, धर्मात्मा पुत्र का जन्म देखते हैं। सच पूछे तो उसके पीछे पूर्वजन्मकृत ऋणानुबन्ध का सिद्धान्त ही कारण है। ऋणानुबन्ध के सिद्धान्त पर से यह भी स्पष्टतः समझ में आ जाएगा कि अमुक जीव के प्रति अनुराग या आसक्ति और अमुक व्यक्ति के प्रति अरुचि या घृणाः तथा अमुक व्यक्ति के संयोग और अमुक के प्रति वियोग, अमुक व्यक्ति के साथ सम्बन्ध से सुख या दुःख क्यों होता है या क्यों हुआ?? ऋणानुबन्ध कैसे कैसे चुकता है, कैसे बंधता है? मान लीजिए, एक जीव ऐसा है, जिसके एक भव का आयुष्य पूरा होने पर उस भव में जिन-जिन जीवों से सम्बन्ध ऋणानुबन्ध रूप में जुड़ा है, उसके उदय में आने पर ही फलरूप में ऋण चुकाने से पहले ही उसे अधूरा छोड़कर शरीर-त्याग करके परलोक चला जाता है; क्योंकि मृत्यु का आगमन तो निश्चित है, किन्तु कब आएगी, यह अनियत है। ऐसी स्थिति में उस मृत जीव ने जो भी नया गतिनामकर्म बांधा होगा, उसी योनि में वह उस कर्म के उदय से जन्म लेता है। उस अगले जन्म में पूर्व ऋणानुबन्ध चुकाने के लिये उन-उन जीवों के साथ उसका संयोग या समागम होता है और पूर्वबद्ध कर्म के उदय में आने पर उसका फल भोगता है। इस प्रकार जो पुराना ऋण था, वह भरपाई हो जाता है। साथ ही कर्मफल भोगते समय उन सम्बद्ध जीवों के प्रति प्रीति-अप्रीति, रागद्वेष, मोह-घृणा आदि परिणामों के कारण नये कर्मबन्ध का नया ऋण बंध जाता है। फिर आयुष्यकर्म के क्षय के साथ ही शरीरत्याग होता है, और पुनः उपर्युक्त नियमानुसार वह जीव नया शरीर धारण करता है। जब तक ऋणानुबन्ध (बन्धपरम्परा) सत्ता में होता है, तब तक यह जन्म-मरण का चक्र अविरत चलता रहता है। पूर्वबद्धकर्म (ऋणानुबन्ध) का ऋण जब पूरा चुकता हो जाता है, उसका अंशमात्र भी शेष नहीं रहता, तभी संसार के बन्धन से वह जीव छूटता है और मुक्त होकर अनन्तज्ञान-दर्शन-अव्याबाधसुख और अनन्त आत्मशक्ति से सम्पन्न, केवल शान्त स्थिति में सदाकाल के लिए रहता है। . १. आध्यात्मिक निबन्धों में से ऋणानुबन्ध प्रकरण, (भोगीभाई गि. शेठ) पृ०.९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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