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गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४५५ निष्कर्ष यह है कि पहले से छठे गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में उदययोग्य और उदीरणायोग्य प्रकृतियाँ समान हैं, परन्तु सातवें से तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की अपेक्षा उदीरणायोग्य प्रकृतियाँ तीन-तीन कम होती हैं।
कर्मप्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त ही समझनी चाहिए। चौदहवें अयोगि-केवली गुणस्थान में किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती, क्योंकि उदीरणा होने में योग की अपेक्षा है, परन्तु चौदहवें गुणस्थान में योगों का सर्वथा निरोध हो जाता है। अतः इस गुणस्थान में कर्मों की उदीरणा कतई नहीं होती।
१. (क) उदउव्वुदीरणा परमपमत्ताई सग-गुणेसु ॥ २३॥
एसा पयडि-तिगूणा वेयणियाऽहारजुगल थीणतिगं। .
मणुयाउ पमत्तंता अजोगि अणूदीरणो भगवं॥ २४॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २३-२४ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ९६ से ९८ तक (ग) णत्थित्ति अजोगि जिणे उदीरणा उदयपयडीणं। - गोम्मटसार कर्मकाण्ड, २८०
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