________________
५०० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
प्रथम गुणस्थान में दर्शनमोह का उदय भी, आंशिक क्षयोपशम भी · यद्यपि गुणस्थानों में ज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम आदि होते हैं। किन्तु उनकी रचना का मौलिक आधार दर्शन-मोह और चारित्र-मोह के क्षयोपशम आदि ही प्रतीत होते हैं। प्रथम गुणस्थान का अधिकारी व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होता है, उसके दर्शनमोह के उदय होने के कारण प्रथम गुणस्थान को औदयिक भाव माना है। किन्तु उक्त गुणस्थान में दर्शनमोह का उदय होने पर भी उसको दर्शनमोह का आंशिक क्षयोपशम भी होता है। इस क्षयोपशम की दृष्टि से समवायांग सूत्र में प्रथम गुणस्थान को विशुद्धिजनित क्षायोपशमिक भाव माना गया है। इस प्रकार विचार करने से दोनों में विरोध प्रतीत नहीं होता, किन्तु मुख्यता-गौणता का अन्तर अवश्य प्रतीत होता है। इसी प्रकार पहले से लेकर १४ वें गुणस्थान तक में जो एक-एक भाव बताया है, वह मुख्यता की दृष्टि से बताया है, गौणता की दृष्टि से उनमें अन्य भाव भी हो सकते
पांच भावों में से प्रत्येक कर्म में प्राप्त भाव का निर्देश औपशमिक भाव ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मों में से मोहनीय कर्म में ही प्राप्त होता है, अन्य कर्मों में नहीं। इसका कारण पहले बताया जा चुका है। क्षायोपशमिक भाव चारों घातिकर्मों में पाया जाता है, अघातिकर्मों में नहीं। इसका कारण भी पूर्व में कहा जा चुका है। उक्त दोनों भावों से शेष रहे क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक, ये तीनों भाव आठों ही कर्मों में पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं-मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान के चरम समय में, शेष तीन घातिकर्मों का क्षय क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में तथा अघाति कर्मों का अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में आत्यन्तिक उच्छेद-सर्वथा क्षय होने से क्षायिक भाव आठों कर्मों में पाया जाता है। पारिणामिकं भाव भी आठों कर्मों में इसलिए पाया जाता है कि वह आत्मप्रदेशों के साथ पानी और दूध की तरह एकाकाररूप से परिणमित होकर विद्यमान है और औदयिक भाव तो समस्त संसारी जीवों में आठों कर्मों का उदय होने से विद्यमान है ही। सारांश यह है-मोहनीय कर्म में औपशमिक
आदि पांचों भाव सम्भव हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीन घातिकर्मों में औपशमिक भाव के सिवाय शेष चारों भाव पाये जाते हैं तथा वेदनीय, आयु, नाम
१. (क) देखें, गोम्मटसार गा. ११ से १४ तक विवेचन सहित।
(ख) समवायांग वृत्ति १४/१ पत्र ३६ (ग) श्रमणोपासक के १० सितम्बर ९२ में प्रकाशित 'गुणस्थान की अवधारणा' लेख
से, पृ. ३३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org