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ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५१३ लेकर प्रथम स्थिति करता है। प्रथम स्थिति करने के प्रथम समय से लेकर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन मान का एक साथ उपशम करना प्रारम्भ करता है। संज्वलन मान की प्रथम स्थिति में समय कम तीन आवलिका शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान के दलिकों का संज्वलन-मान में प्रक्षेप नहीं किया जाता, किन्तु संज्वलन माया आदि में किया जाता है। एक आवलिका शेष रहने पर संज्वलन मान के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम हो जाता है। उस समय में संज्वलन मान की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका और एक समय कम दो आवलिका में बांधे गए ऊपर की स्थितिगत कर्मदलिकों को छोड़कर शेष दलिकों का उपशम हो जाता है। उसके बाद समय कम दो आवलिका में संज्वलन मान का उपशम करता है।
जिस समय संज्वलन मान के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन माया की द्वितीय स्थिति से दलिकों को लेकर पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम स्थिति करता है और उसी समय से लेकर तीनों माया का एक साथ उपशम करना प्रारम्भ करता है। संज्वलन माया की प्रथम स्थिति में समय कम तीन अवलिका शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया के दलिकों का संज्वलन माया में प्रक्षेप नहीं करता, किन्तु संज्वलन-लोभ में प्रक्षेप करता है। एक आवलिका शेष रहने पर संज्वलन माया के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम हो जाता है। उस समय संज्वलन माया की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका और समय कम दो आवलिका में बांधे गए ऊपर के स्थितियत् दलिकों को छोड़कर शेष का उपशम हो जाता है। उसके बाद समय कम दो आवलिका में संज्वलन माया का उपशम करता है। . जब संज्वलन माया के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन लोभ की द्वितीय स्थिति से दलिकों के लेकर पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम स्थिति करता है। लोभ का जितना वेदन-काल होता है, उसके तीन भाग करके उनमें से दो भाग प्रमाण प्रथम स्थिति का काल रहता है। प्रथम विभाग में पूर्व स्पर्द्धकों से दलिकों को लेकर अपूर्व स्पर्द्धक करता है। अर्थात्पहले के स्पर्द्धकों से दलिकों को ले-लेकर उन्हें अत्यन्त रसहीन कर देता है। द्वितीय
१. पंचम कर्मग्रन्थ, उपशम श्रेणिद्वार व्याख्या (पं. कैलाशचन्द्र जी), पृ. ३१८ से ३२०
तक
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