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ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५०७
जिन परिणामों द्वारा आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशमन करता है, ऐसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत परिणामों की धारा को उपशम श्रेणी कहते हैं । इस उपशम श्रेणी का प्रारम्भक अप्रमत्तसंयत होता है और उपशमश्रेणी से गिरने वाला अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत, देशविरत या अविरत में से कोई भी हो सकता है। आशय यह है कि उपशम श्रेणी से प्रतिपतित होने वाला क्रमशः चतुर्थ गुणस्थान तक आता है और वहाँ से गिरे तो दूसरे और फिर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त कर लेता है ।
उपशम श्रेणी का प्रस्थान चौथे गुणस्थान से या सप्तम गुणस्थान से?
उपशम श्रेणी के दो हिस्से हैं- पहला है - उपशम भाव का सम्यक्त्व और दूसरा है-उपशम भाव का चारित्र । इनमें से चारित्रमोहनीय कर्म का उपशमन करने से पूर्व उपशम भाव का सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में ही प्राप्त होता है; क्योंकि दर्शनमोहनीय की तीन और चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय - चतुष्क (चार), इन सात प्रकृतियों को सातवें गुणस्थान में ही उपशान्त किया जाता है। इस कारण उपशमश्रेणी का प्रस्थापक (प्रस्थान-यात्री) सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत ही है । कतिपय आचार्यों का मत है कि अविरत - सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत या अप्रमत्त - संयत, इनमें से किसी भी गुणस्थान वाला अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क का उपशम करता है, तथा दर्शनत्रिक (दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ) आदि को संयमित करने वाला अप्रमत्तसंयत ही उपशमित करता है । अतः इसमें सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी- कषायचतुष्क को उपशान्त किया जाता है तथा दर्शनत्रिक का उपशमन तो संयमी ही करता है। इस अभिप्रायानुसार उपशमश्रेणी का प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थान से माना जाना चाहिए । २
उपशमश्रेणी प्रस्थापक द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोपशम किस क्रम से?
उपशम श्रेणी का आरोहक किस प्रकार किस क्रम से मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों का उपशमन करता है? और उसमें कैसे-कैसे सफलता-विफलता के चढ़ाव - उतार आते हैं? इस उपशम यात्रा का वर्णन कर्मशास्त्र में इस प्रकार किया गया है।
यथाप्रवृत्तकरण का कार्य
सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशमन करने के लिए चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी एक गुणस्थानवर्ती संसारयात्री जीव यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम के तीन करण करता है।
१. पंचम कर्मग्रन्थ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. ३७१ २. पंचम कर्मग्रन्थ विवेचन (प. कैलाशचन्द्र जी), पृ० ३७२ ३. 'करण' परिणाम को कहते हैं।
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