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५०८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ 'यथाप्रवृत्तकरण' में प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी (आत्म) विशुद्धि होती है। जिसके कारण शुभ-प्रकृतियों में अनुभाग की वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों में अनुभाग की हानि (कमी) होती है, किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी या गुण-संक्रमण नहीं होता है, क्योंकि यहाँ उनके योग्य विशुद्ध परिणाम नहीं होते। यथाप्रवृत्तकरण का काल अन्तर्मुहूर्त का है।
अपूर्वकरण का कार्य यथाप्रवृत्तकरण का अन्तर्मुहूर्तकाल समाप्त होने पर दूसरा 'अपूर्वकरण' होता है। इस करण में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम और अपूर्वस्थितिबन्ध ये पांचों कार्य होते हैं। अपूर्वकरण के प्रथम समय में कर्मों की जो स्थिति होती है, उसके अन्तिम समय में स्थितिघात के द्वारा वह संख्यातगुणी कम कर दी जाती है। रसघात के द्वारा अशुभ प्रकृतियों का रस क्रमशः क्षीण कर दिया जाता है। गुणश्रेणी-रचना में प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति को छोड़कर ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में से प्रतिसमय कुछ दलिक ले-लेकर उदयावली के ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में उनका निक्षेप कर दिया जाता है। दलिकों का निक्षेप इस प्रकार किया जाता है कि पहले समय में जो दलिक लिये जाते हैं, उनमें से सबसे कम दलिक प्रथम समय में स्थापित किये जाते हैं। उससे असंख्यातगुणे दलिक दूसरे समय में, उससे असंख्यातगुणे दलिक तीसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय-पर्यन्त असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे अधिक दलिकों का निक्षेप किया जाता है। दूसरे आदि समयों में भी जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं, उनका निक्षेप भी इसी प्रकार किया जाता हैं।
ग्रहण किये जाने वाले कर्मदलिक थोड़े-से होते हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकों का ग्रहण किया जाता है और उन दलिकों का निक्षेप भी अविशिष्ट समयों में ही होता है। अन्तर्मुहूर्तकाल से ऊपर समयों में निक्षेप नहीं किया जाता है। इसी दृष्टि और क्रम को यहाँ भी समझ लेना चाहिए कि प्रथम समय में गृहीत दलिक अल्प होते हैं। तदनन्तर दूसरे आदि समयों में वे असंख्यातगुणे होते हैं और उन सबकी रचना अन्तर्मुहूर्तकाल-प्रमाण समयों में होती है। काल का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त से आगे कथमपि नहीं बढ़ता है।
१. गुणश्रेणि का विशद् स्वरूप जानने के लिए देखें-कर्मग्रन्थ भा. ५ की गा. ८२, ८३ का
विवेचन
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