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४२४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
व अप्रमत्त गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं। इसी प्रकार मिश्र गुणस्थान तथा वेदक सम्यक्त्व को भी क्षायोपशमिक में गिना गया है । १
क्षायोपशमिक भाव के तीन कार्य : कौन-कौन से?
जैसे - नींद से खुली हुई आँख की एक बार मूंदने के बाद दो स्थितियाँ होती हैं- (१) पुनः नींद न आने रूप तथा (२) कुछ देर तक आँखें चुंधियाने रूप; इसी प्रकार कर्म का उपशम हो जाने पर उसकी भी दो अवस्थाएँ हो जाती हैं - एक तो पूर्ण उदय में आने रूप तथा दूसरी आंशिक उदय और आंशिक उपशम रूप । इनमें से दूसरी अवस्था में कुछ मन्द - सा आलोक प्रतीति में आता रहता है। ऐसे आंशिक उदय को ही क्षयोपशम कहा जाता है और क्षयोपशम जिसका प्रयोजन - कारण है, उसे क्षायोपशमिक कहते हैं ।
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उपर्युक्त प्रकार के आंशिक उदय को हम तीन रूपों में सांसारिक जीवों में देखते हैं - एक तो अपूर्णता के रूप में, दूसरे अविशदता - अस्पष्टता ( धुंधलेपन) के रूप में और तीसरे हानि-वृद्धिगत तारतम्यों के रूप में। उदाहरणार्थ- पहले हम अपने वर्तमान ज्ञान को देखें- प्रथम तो वह अपूर्ण है, क्योंकि हम सब कुछ नहीं जान पाते। दूसरे वह ज्ञान अविशद = अस्पष्ट या संदिग्ध है; क्योंकि जिन विषयों को हम जानते हैं, उनमें भी कहीं न कहीं कुछ न कुछ संदिग्धता बनी रहती है । अन्यथा, हेतु युक्ति या तर्क आदि के द्वारा अथवा दूसरे से पूछ कर उसे पुष्ट करने की आवश्यकता हमें न होती । तीसरी बात - इसमें हानि - वृद्धिगत तरतमता भी प्रत्यक्ष है। हम देखते हैं कि किसी का ज्ञान कम है और किसी का अधिक। जिसका ज्ञान आज कम है, कल को वह अधिक हो जाता है और जिसका ज्ञान आज अधिक है, कल को वह कम हो जाता है। ये तीनों बातें क्षायोपशमिक भाव में स्वाभाविक हैं।
आज सांसारिक मानवों की ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ आदि शक्तियों की जो समग्र अभिव्यक्तियाँ अनुभव में आ रही हैं, वे सबकी सब क्षायोपशमिक हैं । कर्मविज्ञान की भाषा में कहें तो इन समस्त शक्तियों को तिरोहित, आच्छादित या कुण्ठित करने वाली ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तरायकर्म - प्रकृतियों का क्षयोपशम ही वर्तमान में सांसारिक जनों को उपलब्ध है । उपशम इसका सम्भव नहीं और क्षय वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।
(क) सम्मत्तस्स देसघादि - फद्दयाणमुदएण सद्द वड्ढमाणो सम्मत्त- परिणामो खओवसमिओ । - धवला ५/१, ७/२००
(ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा. २ में क्षायोपशमिक भाव के सन्दर्भ में उद्धृत पृ. १८२
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