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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४८९ परिणाम) कषाय के उदय अथवा योगजनक शरीर नामकर्म के उदय का परिणाम है। इस प्रकार ये गति आदि इक्कीस पर्याय औदयिक हैं।
मोहजनित भाव ही औदयिक भाव है, शेष औपचारिक औदयिक भाव की वास्तविक जांच परख के लिए पिछले पृष्ठों में कहा गया था कि जहाँ मोहजनित भाव है, वहीं औदयिक है, उसके बिना या तो क्षायिक है या
औपशमिक हैं। पंचाध्यायी (उ.) में इसी अपेक्षा से कहा गया है कि इसी न्याय से मोहादिक घातीकर्मों के तथा अघाती कर्मों के (मोहजनित) उदय से आत्मा में जितने भी भाव होते हैं, उतने सब औदयिक भाव हैं। परन्तु इन भावों में भी यह भेद है कि केवल मोहजन्य वैकृतिक भाव ही सच्चा विकारयुक्त औदयिकभाव है, बाकी के सब लोकरूढ़ि से विकारयुक्त औदयिक भाव हैं, ऐसा समझना चाहिए। 'धवला' में भी इस सम्बन्ध में यही स्वर है कि मोहजनित औदयिक भाव ही बन्ध के कारण हैं,२ अन्य नहीं।
- पारिणामिक भाव : स्वरूप, कार्य, प्रकार और फल __परिणाम कहते हैं-स्व-भाव को। परिणाम जिसका प्रयोजन है, वह पारिणामिक है। अर्थात्-जिसके होने में द्रव्य का स्व-रूप-लाभ मात्र कारण है, वह परिणाम है। इसका परिष्कृत लक्षण राजवार्तिक में किया गया है-कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखने वाले द्रव्य की स्वभावभूत अनादि पारिणामिक शक्ति से ही आविर्भूत ये भाव पारिणामिक हैं। अर्थात्-जो क्षायिकादि चारों भावों से व्यतिरिक्त जीव-अजीवगत भाव है, वह पारिणामिक भाव है। कर्मग्रन्थ के अनुसार-जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न होकर स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। आशय यह है कि परिणमित होना, यानी अपने मूल स्वरूप का त्याग न करके अन्य स्वरूप को प्राप्त होना परिणाम कहलाता है, परिणाम को ही पारिणामिक कहते हैं। वस्तुतः किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक स्वरूप-परिणमन ही पारिणामिक भाव है। - इसका तात्पर्य यह है कि जीव का अपने प्रदेशों से सम्बद्ध होकर अपने स्वरूप को छोड़े बिना दूध और पानी की तरह मिश्रित-एकाकार हो जाना अथवा तत्-तत् प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल और अध्यवसाय की अपेक्षा से उस-उस प्रकार के
१. तत्त्वार्थसूत्र (उपाध्याय केवलमुनिजी) , २. (क) धवला ७/२, १, ७/९/९,
(ख) पंचाध्यायी (उ.) १०२४, १०२५.
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