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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४९१
ये अस्तित्व आदि तो जीव और अजीव दोनों में साधारण हैं। इसलिए 'च' शब्द के द्वारा उनका पृथक् ग्रहण किया गया है। यहाँ जीव का स्वरूप कथन ही अभीष्ट होने से उसके असाधारण भावों द्वारा ही बतलाया गया है।
राजवार्तिक में सूत्रोक्त 'च' शब्द से अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्त्व, पर्यायवत्व, असर्वगतत्व और अनादि - सन्तति- बन्धन - बद्धत्व आदि का भी ग्रहण करने का निर्देश किया है ।
आत्मा
शुद्ध और अशुद्ध पारिणामिक भाव
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व, ये तीन आत्मा के असाधारण पारिणामिक भाव हैं, क्योंकि ये भाव आत्मा (जीव ) के सिवाय अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं होते । उपर्युक्त तीनों भावों को दो प्रकार के पारिणामिक भावों में विभक्त किया गया है - शुद्ध पारिणामिक भाव और अशुद्ध पारिणामिक भाव । १
शुद्ध पारिणामिक भाव - शुद्ध द्रव्यार्थिक ( निश्चय) नय की अपेक्षा से शुद्ध पारिणामिक भाव एकमात्र जीवत्व ही है; क्योंकि यह शुद्ध आत्मद्रव्य का चैतन्य रूप परिणाम है। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि यह शुद्ध आत्मा का परिणाम (परिणमन - पर्याय- परिवर्तन) है । समयसार में भी जीवत्व का यही स्वरूप प्ररूपित किया है कि आत्मद्रव्य के हेतुभूत चैतन्य मात्र के भाव धारणरूपा शक्ति जीवत्व शक्ति है। द्रव्यसंग्रह में कहा गया है - शुद्ध चैतन्यरूप जीवत्व अविनश्वर रूप से शुद्ध व्याश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिक संज्ञक शुद्ध पारिणामिक भाव कहलाता है। शुद्ध पारिणामिक भाव अविनाशी है, यह मुक्तात्मा में पाया जाता है । २
अशुद्ध पारिणामिक भाव - अशुद्ध पारिणामिक भाव पर्यायजन्य (परिणमनआश्रित) होने से विनाशशील होता है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अशुद्ध
१. (क). तत्त्वार्थसूत्र २/७ विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ५०
(ख) सर्वार्थसिद्धि २/७
(ग) नियमसार (ता. वृ.) ४१
(घ) 'जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन), पृ. १२७
२. (क) चैतन्यं जीवशब्देनाभिधीयते तच्चानादिद्रव्य भवन- - निमित्तत्वात् पारिणामिकत्वम् । - तत्त्वार्थवार्तिक २/७/६
(ख) आत्मद्रव्य - हेतुभूत - चैतन्यमात्रभाव-धारणलक्षणा जीवत्वशक्तिः ।
(ग) तत्र
शुद्ध-चैतन्यरूप जीवत्वमविनश्वरत्वेन
पारिणामिकभावो भण्यते ।
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-समयसार (आ. ख्या.) शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्ध - द्रव्यसंग्रह १३
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