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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४८७ रहते हैं। जब वे सत्ता में संचित कर्म पक कर द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से जीव को स्वकर्मानुसार फल देने लगते हैं, तब वह अवस्था उन कर्मों की उदयअवस्था कहलाती है अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से कर्म जो फल जीव को वेदन (अनुभव) कराता है, वह उदय कहलाता है। अर्थात्-कर्मों की शुभाशुभ प्रकृतियों के विपाक (फल) का अनुभव (वेदन) करना (भोगना) उदय है। कर्मों के उदय से प्राप्त हुए या प्राप्त होने वाले भाव को अथवा प्राप्त होने वाली जीव की स्थिति या अवस्था (पर्याय) को औदयिक भाव कहते हैं। कर्मों के उदय में आने पर आत्मा की स्वाभाविक शक्ति आवृत या कुण्ठित हो जाती है और उसके परिणाम कर्म की प्रकृति के अनुरूप हो जाते हैं। इसलिए कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए गुण को औदयिक भाव कहते हैं। __ सामान्यरूप से औदयिक भाव के अनन्त और मुख्य रूप से इक्कीस प्रकार _ समस्त संसारी जीवों की कर्मों के उदय से जो-जो अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं या वे जो जो (शरीर, इन्द्रिय, सुख-दुःख आदि की) अवस्थाएँ या पर्यायें प्राप्त करते हैं, वे सब अवस्थाएँ औदयिक भाव में परिगणित होती हैं। इस दृष्टि से सांसारिक जीवों का औदयिक भाव अनन्त अवस्थाओं की अपेक्षा से अनन्त प्रकार का हो सकता है। परन्तु यहाँ तो प्रमुख भावों (पर्यायों या अवस्थाओं) का निर्देश करके औदयिक भाव के इक्कीस मुख्य प्रकार बताए हैं-(१) अज्ञान, (२) असिद्धत्व, (३) असंयम, (४-९) छह लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत, (तेजो) पीत, पद्म और शुक्ल), (१०१३) चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ), (१४-१७) चार गति (नरकतिर्यश्च-मनुष्य-देव-गति), (१८ से २०) तीन वेद (स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद-काम) और (२१) मिथ्यात्वार
१: (क) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से भावांशग्रहण, पृ. १२६.
(ख) द्रव्यादि निमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः। -सर्वार्थसिद्धि २/१ (ग) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन २/१ (उपाध्याय केवलमुनि) पृ.७९ (घ) कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः औदयिकः।
-धवला १/१, ११८ (ङ) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. ३२४ । । (च) उदयःशुभाशुभ-प्रकृतीनां विपाकतोऽनुभवनं स एव, तेन वानिवृत्तः औदयिकः।
. -कर्मग्रन्थ ४ स्वोपज्ञ वृत्ति पृ. १९० २. (क) जैनदर्शन (न्यायविजयजी) (ख) गति-कषाय-लिंग-मिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धत्वले श्याश्चतुश्चतु स्त्रयैकैकैकैकषड्भेदा।
-तत्त्वार्थसूत्र २७
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