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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४६७
जीवों में पांचों भाव, पुद्गलादि द्रव्यों में नहीं - संसारी या मुक्त कोई भी आत्मा (जीव) हो, उसके सभी पर्याय इन पांच भावों में से किसी न किसी भाव वाले होंगे ही। धवला में स्पष्ट कहा गया है- 'जीवों में पांचों ही भाव पाये जाते हैं, किन्तु शेष द्रव्यों में तो पांचों भाव नहीं हैं; क्योंकि पदगल द्रव्यों में औदयिक और पारिणामिक, ये दो भाव ही उपलब्ध होते हैं, जबकि धर्मास्तिकाय आदि चारों द्रव्यों में सिर्फ पारिणामिक भाव ही पाया जाता है। इसलिए स्पष्ट है कि जीव में पांच भावों वाले पर्याय सम्भव हैं, जबकि अजीव में पांचों भाव वाले पर्याय सम्भव नहीं हैं। इसी कारण ये भाव अजीव के स्वतत्व नहीं हैं।
पांचों में से किस जीव में कितने भाव? पूर्वोक्त पांचों भाव सभी जीवों में एक साथ होने का भी नियम नहीं है। सिद्धमुक्त जीवों में दो भाव होते हैं- क्षायिक और पारिणामिक। सांसारिक जीवों में कोई तीन भावों वाला, कोई चार भावों वाला और कोई पांच भावों वाला होता है, मगर दो भावों वाला कोई संसारी जीव नहीं होता । आशय यह है कि मुक्त आत्मा के पर्याय दो भावों तक तथा संसारी आत्माओं के पर्याय तीन से लेकर पांच भावों तक पाये जाते हैं।२ . .
. आत्मा के स्वरूप के विषय में अन्य दर्शनों और जैनदर्शन का मन्तव्य __ यहाँ एक प्रबल शंका उपस्थित होती है कि आत्मा तो कूटस्थनित्य है, आत्मा के पर्याय होगी तो वह कूटस्थनित्य न होकर परिणमनशील हो जाएगी। क्योंकि सांख्य
और वेदान्तदर्शन विश्व की समस्त आत्माओं को कूटस्थ नित्य मानते हैं। वे उनमें कोई परिणमन (पर्याय-परिवर्तन) नहीं मानते। अतएव ये ही दोनों दर्शन आत्मा के सुख-दुःखादि परिणामों को आत्मा (पुरुष या ब्रह्म) के न मानकर क्रमशः प्रकृति
और अविद्या (माया) के मानते हैं। नैयायिक और वैशेषिक दर्शन ज्ञान आदि को आत्मा के गुण तो अवश्य मानते हैं, किन्तु आत्मा को ये दोनों दर्शन नित्य (अपरिणामी) मानते हैं। तात्पर्य यह है कि ये चारों दर्शन आत्मा में कोई भी पर्यायपरिवर्तन (परिणमन) नहीं मानते। बौद्धदर्शन आत्मा को एकान्त क्षणिक, अर्थात्निरन्वय परिणामों का प्रवाहमात्र मानता है। ऐसी स्थिति में आत्मा के पर्यायरूप ये
१. जीवेसु पंचभावाणमुवलंभा। ण च सेसदव्वेसु पंच भावा अत्थि। पोग्गलदव्वेसु
ओदइय-पारिणामियाणं दोण्हं चेव भावाणमुवलंभा; धम्माधम्मागास-कालदव्वेसु
एक्कस्स पारिणामिय-भावस्सेवुवलंभा। . -धवला ५/१, ६, ९/१८६ २. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी), पृ. ४८
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