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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४७५
औपशमिक भाव द्वारा मोक्ष के शिखर के निकट पहुँचने का पराक्रम औपशमिक भाव से सम्यक्त्व और चारित्र के इतने सोपानों को पार करके मोहकर्मद्वय का उपशमन करना कर्ममुक्ति की साधना में महान् पुरुषार्थ है, विराट् पराक्रम है। यह तो भिन्न-भिन्न कार्यों के लिंग से कारणों में भी भेद की सिद्धि होने से औपशमिक चारित्र सात प्रकार का प्रतिपादित किया गया है । परन्तु कर्मग्रन्थ के अनुसार- अनन्तानुबन्धी- चतुष्क के क्षयोपशम या उपशम से और दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम से जो तत्वरुचिव्यञ्जक आत्म-परिणाम प्रकट होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व है, तथा चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों के उपशम से व्यक्त होने वाला आत्मा का स्थिरतात्मक परिणाम औपशमिक चारित्र है । इस प्रकार उपशमद्वय युक्त औपशमिक भाव सादि - सान्त है । यह ग्यारहवें गुणस्थान में उपलब्ध होने वाला यथाख्यात - चारित्र है। यदि उक्त प्रकार की भेद-विवक्षा न की जाए तो वह अनेक प्रकार का हो सकता है; क्योंकि उपशम श्रेणी में प्रतिसमय पृथक्-पृथक् असंख्यात
निर्जरा के निमित्तभूत परिणाम पाए जाते हैं । अतएव स्पष्ट है कि औपशमिक भावयुक्त आत्मा दर्शनमोह, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन कषायों की कितनी विकट घाटियाँ पार करके मोक्ष के शिखर के निकट पहुँच जाता है । २ यह उपलब्धि भी कम नहीं है । 'षट्खण्डागम' में औपशमिक भाव को अविपाक- प्रत्ययिक जीव- भावबन्ध कहकर उसे उपशान्त क्रोध, उपशान्त-मान, उपशान्त-माया, उपशान्त-लोभ, उपशान्त राग, उपशान्त - दोष (द्वेष), उपशान्त
१. सम्मत्तंचारित्तं दो चेवट्ठाणाइमुवसमे होंति ।
अवियप्पा तहा कोहाइया मुणेदव्वा ॥ ७ ॥
तदियं,
टीका - ओवसमियस्स भावस्स सम्मत्तं चारितं चेदि दोण्णिट्ठागाणि । कुदो ? उवसमसम्मत्तं उवसमचारित्तमिदि दोण्णिं चे उवलंभा । उवसम - सम्मत्तमेयविहं । ओवसमियं चारित्तं सत्तविहं । तं जहा - नपुंसयवेदुवसामणद्धाए एयं चारितं, इत्थिवेदुवसामणद्धाए विदियं, पुरिस - छण्णोकसाय-उवसामणद्धाए कोहुवसामणद्धाए चउत्थं माणुवसामणद्धाए पंचमं, माओवसामणद्धाए छट्ठ लोहुवसामणद्धाए सत्तमोवसमियंचारितं । भिण्णकज्जलिंगेण कारण-भेद सिद्धिदो उवसमियं चारित्तं सत्तविहं उत्तं । अण्णा पुण अणेयपयारं, पडिसमयं उवसमसेडिहि पुध पुध असंखेज्ज-गुण- सेडि- णिज्जरा - णिमित्त - परिणामुवलंभा ।
- धवला ५/१, ७, १/७ व टीका १९०
२. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४, पृ. १९७ (ख) कर्मसिद्धान्त, पृ. ११७
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