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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४८१
रूप (एकदेश) से क्षय तथा आंशिकरूप ( एकदेश) से उपशम से उत्पन्न होता है । 'धवला' में कहा गया है- कर्मों के क्षय से और उपशम से उत्पन्न हुआ गुण क्षायोपशमिक भाव कहलाता है । इस भाव में न तो कर्मों का सर्वथा क्षय होता है, और न सर्वथा उपशम। 'राजवार्तिक' में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि जैसे कोदों को धोने से कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण, उसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना ही मिश्रभाव (क्षयोपशमभाव) है। इस क्षयोपशम के लिए (आत्मा के ) जो भाव (पर्याय) होते हैं, उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। वस्तुतः क्षयोपशम एक प्रकार की आत्मिक शुद्धि है, जो कर्म के एक अंश का प्रदेशोदय द्वारा क्षय होते रहने पर प्रगट होती है। यह विशुद्धि वैसी ही मिश्रित होती है, जैसे- कोदों को धोने से उनकी मादक शक्ति कुछ अंशों में क्षीण हो जाती है और कुछ अंशों में रह जाती है। पंचसंग्रह में इस भाव का स्पष्ट स्वरूप बताया गया है कि उदयावलिका में प्रविष्ट कर्मांश के क्षय और उदयावलिका में अप्रविष्ट अंश के विपाकोदय को रोकने रूप उपशम के द्वारा होने वाले जीव-स्वभाव को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । प्रशमरति में भी इसी आशय का स्वरूप बताते हुए कहा गया है- 'उदय में आए हुए कर्म के क्षय और अनुदित कर्म के उपशम से प्रकट हुए जीव के भाव को क्षायोपशमिक कहते हैं। क्षायोपशमिक में क्षयोपशम घातिकर्मों का ही होता है । इसलिए न्यायविजयजी ने सरल लक्षण बताया है- घातिकर्मों के क्षयोपशम (एक प्रकार के शिथिलीभाव) से प्राप्त होने वाली ( आत्मा की ) अवस्था ( पर्याय) क्षायोपशमिक भाव कहलाती है।
क्षायोपशमिक भाव का रहस्यार्थ और कार्य
सर्वार्थसिद्धि में क्षायोपशमिक भाव का रहस्य बताते हुए कहा गया है- वर्तमान का में सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी (भविष्य में उदय होने रूप) क्षय होने से • और आगामीकाल की अपेक्षा उन्हीं का सदवस्थारूप ( सत्ता में रहने रूप) उपशम होने से तथा देशघाती स्पर्द्धकों का उदय रहते हुए क्षायोपशमिक भाव होता है। आशय यह है कि कर्म के उदयावलि - प्रविष्ट मन्दरस- स्पर्द्धक का क्षय और अनुदयमान रस-स्पर्द्धक की सर्वघातिनी विपाकशक्ति का निरोध अथवा देशघातिरूप में परिणमन तथा तीव्रशक्ति का मन्दशक्ति के रूप में परिणमन (उपशमन) क्षयोपशम भाव है। इसी तथ्य का फलितार्थ पंचास्तिकाय (त. वृ.) में बताया गया है कि फलदान समर्थरूप से कर्मों का उद्भव और अनुद्भव क्षयोपशम है।
यद्यपि यहाँ कुछ कर्मों का उदय भी विद्यमान रहता है, किन्तु उनकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण एवं कर्मों का उदय रहते हुए भी जो जीव- गुण का
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