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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४७३
औपशमिक भाव का परिष्कृत लक्षण तथा उपलब्धि अत: औपशमिक भाव का परिष्कृत लक्षण हुआ- मोहनीय कर्म के उपशम से आत्मा की जो अवस्था (पर्याय) प्राप्त होती है, वह औपशमिक भाव है। मोहनीय कर्म के एक भेद दर्शन-मोहनीय के उपशम से जो सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) प्राप्त होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व है, और मोहनीय कर्म के दूसरे भेद- चारित्रमोहनीय के उपशम से जो (यथाख्यात) चारित्र प्राप्त होता है, वह औपशमिक चारित्र है। ये दोनों ही औपशमिक भाव कहलाते हैं।
औपशमिक भाव का फल ___ इसी कारण औपशमिक भाव के तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों और आगमों में मुख्य दो भेद बताए हैं- सम्यक्त्व और चारित्र। परन्तु ये दोनों होते हैं- उपशमरूप ही। आशय यह है कि औपशमिक भाव में निमित्तभूत कर्ममल क्षणभर के लिए दबा रहता है, या उदय में नहीं आता। इस भाव में अनादिकालीन विषमता तथा अशान्ति क्षणभर के लिए दूर हो जाने पर पूर्ण समता तथा शमता (शान्ति) की प्रतीति होकर पुनः लुप्त हो जाती है। यह औपशमिक भाव का फल है।
तात्पर्य यह है कि औपशर्मिक भाव जीव को उसी समय तक होता है, जब तक पूर्वोक्त द्विविध मोहनीय कर्म का पुनः उदय नहीं हो जाता। मोहनीय कर्म का क्षणभर के लिए उदय न होने से औपशमिक भाव प्राप्त होने पर जीव के परिणामों में विशुद्धि आ जाती है।
औपशमिक भाव का कार्य - औपशमिक भाव का कार्य है- पूर्ण समता और शमता की क्षणिक प्रतीति तथा दर्शनमोह एवं चारित्रमोह की प्रकृति का उपशम अथवा उदयविरति। जिस प्रकार गाढ़ निद्रा के अकस्मात् भंग हो जाने पर आँख खुल तो जाती है, लेकिन क्षणभर के लिए थोड़ी-सी झलक दिखा कर पुनः मुंद जाती है। इसी प्रकार उपशमभाव से मोहकर्म की उपशान्तता होकर पुनः दब जाती है, थोड़ी देर के लिए मोहनीयकर्म को सुला दिया जाता है, वह शान्त होकर बैठ जाता है। उदयविरति का क्षणिक काल समाप्त होने ही वह पुनः सचेष्ट हो जाता है, उदय में आकर वह पुनः जीव के परिणामों पर अपना प्रभाव दिखाने लगता है। फलतः जीव के परिणाम पुनः पूर्ववत् मलिन हो जाते हैं।
१. जैनदर्शन (न्या. न्या. न्यायविजयजी), पृ. ३०७ २. (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. २/३ पृ.८०
(ख) कर्मसिद्धान्त, पृ. १०७-१०८
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