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४७० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ स्वरूप-परिणमन होती है, अर्थात्-द्रव्य के अस्तित्व से अपने आप होने वाला द्रव्य का स्वाभाविक परिणमन होता है। __पांच भावों में स्वाभाविक-वैभाविक, शुद्ध-अशुद्ध
बन्धक-अबन्धक कौन-कौन? संक्षेप में, यों कहा जा सकता है कि जीवों की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाएँ बताने के लिए ही जैनकर्म-विज्ञान में पांच भावों का निरूपण किया गया है। इन पांचों भावों में से औदयिक भाव वाले पर्याय वैभाविक हैं और शेष चार भावों वाले पर्याय स्वाभाविक हैं। दूसरी दृष्टि से देखें तो क्षायिक और पारिणामिक भाव ही शुद्ध हैं, शेष मिश्र हैं या अशुद्ध हैं। 'धवला' के अनुसार पूर्वोक्त पांच भावों में से औदयिक भाव बन्ध का (पारम्परिक) कारण है और औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीनों भाव आत्मा के मोक्ष के कारण हैं। पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनों का कारण नहीं है। यों निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो 'समयसार' में कहा गया है कि 'यथाख्यातचारित्र अवस्था से नीचे राग का सद्भाव अवश्यम्भावी होने से (न्यूनाधिक रूप से) बन्ध का कारण है, क्योंकि ज्ञान गुण जघन्य ज्ञान गुण के कारण पुनः अन्यरूप से परिणमन करता है, इसलिए वह कर्मों का बन्धक कहा गया है।' 'समयसार वृत्ति' में कहा गया है कि आगम की भाषा में जो औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक ये तीन भाव कहे जाते हैं वे ही अध्यात्म भाषा में शुद्धाभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि पर्याय संज्ञाओं को प्राप्त करते हैं।
औपशमिक को प्राथमिकता क्यों? औदयिकं को क्यों नहीं? तत्त्वार्थसूत्र, पंचसंग्रह इत्यादि ग्रन्थों में पांच भावों के क्रमविन्यास में सर्वप्रथम औपशमिक भाव को ग्रहण किया गया है, उस विषय में पंचसंग्रह में एक प्रश्न
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी), पृ. ४८ (ख) ओदइया बंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा।
भावो दु पारिणामिओ करणोभयवन्नियो होहि। -धवला ७/२, १,७/गा. ३/९ २. (क) जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणो, तेण दु सो बंधगो भणिदो॥ (ख) आगमभाष्यौपशमिक-क्षायोपशमिक-क्षायिकभावत्रयं भण्यते अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धाभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञा लभते।
-समयसार ता. वृ. ३२० टीका-स तु यथाख्यात-चारित्रावस्थाया अधस्तातवश्यम्भावि-रागसद्भावात् बन्धहेतुरेवस्यात्॥
___ -समयसार मूल व टीका १७१
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