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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की
ओर प्रस्थान
समुद्र और उसकी लहरों की तरह जीव और उसके पंच भाव समुद्र और उसकी लहरें मूल में एक ही हैं। कभी-कभी वे लहरें दूर-दूर तक ऊँची-ऊँची उठती जाती हैं और थोड़ी देर बाद शान्त हो जाती हैं। कभी अत्यन्त ऊँची उछलती हैं तो कभी एकदम शान्त दिखाई देती हैं, कभी-कभी थोड़ी शान्त होती हैं और थोड़ी धीमे-धीमे चलती रहती हैं। कभी-कभी ऐसा भी मालूम होता है कि समुद्र से जो लहरें उठी थीं, वे वापस आकर समुद्र में विलीन हो गई हैं। वे लहरें बिलकुल मिट गई हैं, वे पुनः कभी नहीं उठतीं। अथवा वे लहरें समुद्र से उठकर समुद्र के आसपास फैली हुई बालू में मिलकर बिलकुल नष्ट हो गई हैं। परन्तु इन सब स्थितियों-पर्याय परिवर्तनों के होते हुए भी समुद्र में जो समुद्रत्व या जलत्व है, वही उन लहरों में हैं। लहरें समुद्र से भिन्न प्रतीत होते हुए भी भिन्न नहीं हैं। वे समुद्र की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं, पर्यायें हैं, समुद्र के ही स्व-तन्त्र हैं।
जीव के पांच भाव इसी प्रकार समुद्र और उसकी तरंगों की अभिन्नता के समान 'धवला' में जीवद्रव्य और उसके पंचविध भावों में अभिन्नता का व्यपदेश किया गया है। समुद्र की विभिन्न अवस्थापन लहरों की तरह ये पंचविध भाव भी जीवरूपी समुद्र की अवस्था (पर्याय) रूपी लहरें हैं। इनके कर्मशास्त्रीय नाम ये हैं- (१)औपशमिक (२) क्षायिक (३) क्षायोपशमिक (४) औदयिक और (५) पारिणामिक। अगमों
१. समुद्रो न च तारंगः, तारंगोऽपि क्वचन तथा।
-सिद्धसेन दिवाकर
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