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४४६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उदययोग्य ११७ प्रकृतियों में से कम कर देने पर १११ प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान में रह जाता है।
(३) तीसरे मिश्र गुणस्थान में १०० प्रकृतियाँ उदययोग्य मानी जाती हैं। दूसरे गुणस्थान की उदय-योग्य १११ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क, एकेन्द्रिय जाति नामकर्म, स्थावरनाम, और विकलेन्द्रिय-त्रिक, ये ९ प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में विच्छिन्न हो जाती हैं। कारण यह है कि अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का उदय पहले-दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। इसी प्रकार स्थावर नाम, एकेन्द्रिय जाति और विकलेन्द्रिय त्रिक नामकर्म के उदय वालों में पहलादूसरा गुणस्थान ही होता है, तीसरे से लेकर आगे के गणस्थान नहीं होते: क्योंकि स्थावर नामकर्म तथा एकेन्द्रिय जातिनामकर्म का उदय एकेन्द्रिय जीवों के होता है. द्वीन्द्रिय जातिनाम का उदय द्वीन्द्रिय जीवों के, त्रीन्द्रिय जातिनाम का उदय त्रीन्द्रिय जीवों के और चतुरिन्द्रिय जाति नाम का उदय चतुरिन्द्रिय जीवों के होता है और इन जीवों के पहला और दूसरा ये दो गुणस्थान होते हैं। अतः इन नौ प्रकृतियों का उदय-विच्छेद दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाने से १०२ प्रकृतियाँ शेष रहीं। तथा नरकानुपूर्वी का उदय विच्छेद पहले गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। शेष रही तिर्यश्चानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी इन तीनों आनुपूर्वियों का तीसरे गुणस्थान में अनुदयरूप होने से तीसरे गुणस्थान की उदययोग्य प्रकृतियों में नहीं गिनी जातीं। आनुपूर्वी नामकर्म का उदय उन्हीं जीवों के उस समय होता है, जो परभाव में जन्म ग्रहण करने के लिए वक्र गति से जाते हैं। तीसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव की मृत्यु नहीं होती, इसलिए परभव में जाने और जन्म लेने का सवाल नहीं रहता। इसलिए तीसरे गुणस्थान में आनुपूर्वी चतुष्टय का अनुदय माना गया है।
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क से लेकर चतुरिन्द्रिय नामकर्म पर्यन्त ९ प्रकृतियों तथा पूर्वोक्त आनुपूर्वियों सहित १२ प्रकृतियों को दूसरे गुणस्थान की १११ प्रकृतियों में से कम करने पर ९९ प्रकृतियों का उदय तृतीय गुणस्थान में माना जाना चाहिए था, किन्तु तीसरे गुणस्थान में ही मिश्र-मोहनीय कर्म का उदय होने से ९९
१. (क) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. १३ विवेचन से, पृ. ७८, ७९
(ख) देखें-गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. २६५ में-'मिच्छे मिच्छादावं सुहुमतियं ...... • उदय-वोच्छिण्णा।' अर्थात्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम समय में मिथ्यात्व,
आतप, सूक्ष्मादि तीन, इन ५ प्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है। (ग) णिरयं सासण सम्मो ण गच्छदि नियण तस्स णिरयाणू। -गो. कर्मकाण्ड २६२
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