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४५२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(१२) बारहवें क्षीणमोह या क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान के अन्तिम समय में ५५ प्रकृतियों का उदय माना जाता है। पहले कहा जा चुका है कि बारहवां गुणस्थान क्षपक श्रेणी-आरोहण करने वाले प्राप्त करते हैं। क्षपक श्रेणीआरोहणकर्ता का एकमात्र वज्रऋषभनाराच-संहननधारी होना अवश्यम्भावी है। अतः ऋषभनाराच और नाराच, इन दो संहननों का उदय-विच्छेद ग्यारहवें गुणस्थान के
अन्तिम समय में हो जाता है। फलतः ग्यारहवें गुणस्थान की उदययोग्य ५९ प्रकृतियों में से उक्त दो प्रकृतियों को कम करने पर बारहवें गुणस्थान में उदययोग्य ५७ प्रकृतियाँ मानी जानी चाहिए। किन्तु इन ५७ प्रकृतियों का उदय भी द्विचरम समय. अर्थात्-अन्तिम समय से पूर्व के समय तक पाया जाता है। तथा अन्तिम समय निद्राद्विक (निद्रा और प्रचला) का उदय-विच्छेद होने से, इन दो प्रकृतियों को छोड़ने से शेष ५५ प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में पाया जाता है।
(१३) तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या ४२ है। बारहवें गुणस्थान में कथित उदययोग्य ५५ प्रकृतियों में से ज्ञानावरण-पंचक (मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण), अन्तरायपंचक (दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय), तथा दर्शनावरण-चतुष्क (चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण) इन चौदह प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में विच्छिन्न हो जाता है। तदनुसार तेरहवें गुणस्थान में बारहवें गुणस्थान में कथित उदययोग्य ५५ प्रकृतियों में से उक्त १४ प्रकृतियाँ कम करने पर कुल ४१ प्रकृतियाँ मानी जानी चाहिए थीं, किन्तु तेरहवें गुणस्थान की विशेषता यह है कि तीर्थंकर नामकर्म का बंध करने वाले जीव के इसका उदय इसी गुणस्थान में होता है, अन्य गुणस्थानों में नहीं। अतः पूर्वोक्त उदय
(पृष्ठ ४५१ का शेष)
संजलणतिगं छच्छेओ सट्ठि सुहमंमि तुरिय-लोभंतो।
उवसंतगुणे गुणसट्ठि रिसहनाराय-दुगअंतो॥ १९॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १८, १९ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ८७ से ९० तक १. (क) सगवन्न-खीण दुचरमि निद्द-दुगंतो य चरमि पणपन्ना।
नाणंतराय-दसण चउ छेओ, सजोगि बायाला॥ २०॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. २० विवेचन, पृ. ९१, ९२ (ग) खीण कसाय दुचरिमे णिद्दा पयला य उदय वोच्छिण्णा।
णाणंतराय दसयं दंसण चत्तारि चरिमम्हि॥ . -गोम्मटसार कर्मकाण्ड २७०
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