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गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४४३ सहज चेतना के निरावरण होने से आत्मा के स्व-स्वरूपमय केवलज्ञान-केवलदर्शन का आविर्भाव हो जाता है। (३-४) उदयाधिकार और उदीरणाधिकार
उदय और उदीरणा के स्वरूप में अन्तर उदय का सामान्यतया अर्थ है-विपाक के समय फल को भोगना; जबकि उदीरणा का अर्थ है-विपाक का समय न होने पर भी फल का भोग करना 'उदीरणा' है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मदलिकों का अपने-अपने नियत समय शुभ-अशुभ फलों का अच्छा-बुरा अनुभव कराना उदय है; जबकि बंधे हुए कर्मदलिकों को प्रयत्न विशेष से खींचकर नियत-समय से पहले ही उनके शुभ-अशुभ फलों को समभाव से धैर्य या शान्ति से भोग लेना उदीरणा कहलाती
कर्मों के शुभाशुभ फल को भोगने का ही नाम उदय और उदीरणा है। किन्तु इन दोनों में अन्तर यह है कि उदय में प्रयत्न बिना ही स्वाभाविक क्रम से फलभोग होता है, जबकि उदीरणा में फलोदय का काल प्राप्त न होने पर भी प्रयत्न द्वारा बद्धकर्मों को, जो कि सत्ता में पड़े हैं, उन्हें प्रयत्न द्वारा उदयोन्मुख करके फल भोगना होता है। - परन्तु यह ध्यान रहे-कर्म-विपाक के वेदन (भोगने) को उदय और उदीरणा कहने के प्रसंग में 'रसोदय' को ग्रहण करना चाहिए, प्रदेशोदय को उदयाधिकार में ग्रहण करना अभीष्ट नहीं है। .. . जिस कर्म का बन्ध उसी का फलभोग : अन्य का नहीं • - प्रत्येक कर्म में बन्ध के समय उसके कारणभूत कषायगत-रागद्वेषमोह-गत
अध्यवसाय के तीव्र-मन्द भाव के अनुसार तीव्र-मन्द फल प्रदान करने की शक्ति उत्पन्न होती है। और अवसर आने पर कर्म उसका फल भुगवाता है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक फलप्रद शक्ति जिस कर्म में निहित हो, उसी कर्म के स्वभाव, प्रकृति या प्रवृत्ति के अनुसार ही फल देती है; दूसरे कर्मों के स्वभावानुसार नहीं। जैसेज्ञानावरण कर्म की फलप्रद शक्ति उस कर्म के स्वभावानुसार ही ज्ञान को आवृत कुण्ठित करने का काम करती है, लेकिन दर्शनावरण, वेदनीय आदि अन्य कर्म के
१. वही, द्वितीय कर्मग्रन्थ, विवेचन पृ. ११३, ११५
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