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गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४३७
दूसरे-तीसरे गुणस्थान में सत्ता की प्ररूपणा दूसरे और तीसरे गुणस्थान में १४७ प्रकृतियों की सत्ता है; क्योंकि दूसरे और तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव तीर्थंकर नामकर्म को नहीं बांध पाता। इसका कारण यह है कि उन दो गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व न होने से तीर्थंकर नामकर्म नहीं बांधा जा सकता। इसी प्रकार तीर्थंकर नामकर्म को बांधकर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर दूसरे या तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए प्रथम गुणस्थान में सत्तायोग्य १४८ प्रकृतियों में से तीर्थंकर नामकर्म को छोड़कर दूसरे-तीसरे गुणस्थान में १४७ प्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी गई हैं।
ग्यारहवें गुणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता : क्यों और कैसे? यहाँ प्रश्न होता है कि नरकायु और तिर्यञ्चायु का बन्ध करने वाला उपशम-श्रेणि नहीं करता, तथा बन्ध और उदय के बिना आयुकर्म की सत्ता होती नहीं, तथा ८, ९, १०, ११ गुणस्थानों में नरकायु और तिर्यञ्चायु की सत्ता नहीं बताई है, ऐसी स्थिति में ग्यारहवें गुणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता कैसे मानी जाती है? इसका समाधान यह है कि नरकायु और तिर्यंचायु की सत्ता घटती तो नहीं है, फिर भी कोई जीव उपशम श्रेणी से च्युत होकर चारों गतियों का स्पर्श कर सकता है। अतः सम्भव सत्ता की विवक्षा से यहाँ नरकायु और तिर्यंचायु की सत्ता की सम्भावना बतलाई जाती है। दर्शन-मोहसप्तक को क्षय नहीं करने वाले. अविरत सम्यग्दृष्टि वगैरह के १४८ प्रकृतियों की सत्ता संभव है। - अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क और नरकतिर्यञ्चायु, इन ६ प्रकृतियों को छोड़कर १४२ प्रकृतियों की तथा सप्तक का क्षय हुआ हो तो अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है। सामान्य की अपेक्षा प्रथम से ग्यारहवें तथा दूसरे तीसरे
गुणस्थान में सत्ता प्ररूपणा । यद्यपि पूर्वपृष्ठ में दूसरे-तीसरे गुणस्थान को छोड़कर पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक सामान्यरूप से १४८ कर्मप्रकृतियों की तथा दूसरे-तीसरे गुणस्थान में १४७ प्रकृतियों की सत्ता बताई गई है। सामान्य की अपेक्षा यह कथन यथार्थ है। किन्तु चौथे से लेकर आगे के गुणस्थानों में वर्तमान जीवों के अध्यवसाय विशुद्धतर होने से कर्मप्रकृतियों की सत्ता कम होती जाती है।
१. कर्मग्रन्थ भा. २ गा. २५ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. १०५
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