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४०४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(३) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ आदि सोलह कषाय हैं, और हास्य, रति, अरति आदि ९ नोकषाय हैं। इस प्रकार कषाय के कुल २५ भेद हैं।
(४) योग के उत्तरभेद कुल पन्द्रह हैं। यों सब मिलाकर बन्धहेतुओं के उत्तरभेन ५+१२+२५+१५-५७ होते हैं।
गुणस्थानों में मूल बन्धहेतु की प्ररूपणा पहले गुणस्थान में चारों हेतुओं से बन्ध होता है। इसलिए उस दौरान होने वाले बन्ध में उपर्युक्त चारों कारण हैं। दूसरे से पांचवें तक चार गुणस्थानों में मिथ्यात्वोदय के सिवाय अविरति आदि तीन हेतुओं से बन्ध होता है। अर्थात्-उस समय होने वाले कर्मबन्ध में तीन कारण हैं। छठे आदि पांच गुणस्थानों में मिथ्यात्व और अविरति, इन दो के सिवाय, शेष कषाय और योग दो ही हेतु माने जाते हैं। अर्थात् छठे से दसवें गुणस्थान तक पाँच गुणस्थानों में कषाय और योग, ये दो कर्मबन्ध के हेतु हैं, ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक तीन गुणस्थानों में कषाय भी कारण नहीं होता, एकमात्र योग ही कर्मबन्ध का हेतु माना जाता है। और चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाता है। अतएव उसमें बन्ध का एक भी कारण नहीं रहता। ...
एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासम्भव मूल बन्धहेतु - ज्ञानावरणीय आदि ८ मूल कर्म-प्रकृतियों की बन्धयोग्य कुल १२० प्रकृतियाँ हैं- ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २६ (सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के सिवाय), आयुकर्म की ४, नामकर्म की ६७, गोत्रकर्म की २, और अन्तरायकर्म की ५, ये सब बन्धयोग्य उत्तरप्रकृतियाँ कुल मिलाकर १२० होती हैं।
सातावेदनीय कर्म का बन्ध चतुर्हेतुक कहा गया है, यानी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चारों सातावेदनीय के बन्ध हेतु हैं। इसका कारण यह है कि पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से, दूसरे से पांचवें तक चार गुणस्थानों में अविरति से, छठे से दसवें गुणस्थान तक पांच गुणस्थानों में कषाय से, तथा ग्यारहवें आदि तीन
१. (क) अभिगहियमणभिगहियाभिनिवेसिय-संसइयमणाभोग।
पण मिच्छ बार अविरइ, मणकरणानियमु छजिय-वहो॥५१॥ नव-सोल कसाया पनर जोग इय उत्तरा उ सगवन्ना। इग-चउ-पण-ति-गुणेसु, चउ-ति-दु-इग-पच्चओ बंधो॥५२॥
-चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ५१, ५२ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १७५ से १७९
तक
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