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गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४०५ गुणस्थानों में योग से सातावेदनीय का बन्ध होता है। इस प्रकार तेरह गुणस्थानों में उसके सब मिलाकर चार बन्धहेतु होते हैं।
नरकत्रिक आदि सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व से होता है। उनके नाम इस प्रकार हैं- नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु), जाति-चतुष्क (एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक), स्थावर-चतुष्क (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण नामकर्म), हुंडक संस्थान, आतप नामकर्म, सेवात संहनन, नपुंसकवेंद, एवं मिथ्यात्वमोहनीय। इन सोलह प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्वहेतुक इसलिए कहा गया है कि ये प्रकृतियाँ सिर्फ प्रथम गुणस्थान में बांधी जाती हैं। मिथ्यात्व के साथ अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध है। मिथ्यात्व हो, तभी इन प्रकृतियों का बन्ध होता है, और मिथ्यात्व के अभाव में ये नहीं बंधती हैं। इसलिए मिथ्यात्व इन प्रकृतियों के बन्ध का मुख्य कारण है, बाकी के तीन हेतु गौण हैं।
मिथ्यात्व और अविरति, इन दो बन्धहेतुओं से तिर्यंचत्रिक आदि पैंतीस कर्मप्रकृतियों के बन्ध का अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है। मिथ्यात्व-अविरति बन्ध हेतुक पैंतीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-तिर्यंचत्रिक (तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी
और तिर्यंचायु); स्त्यानर्द्धि-त्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्द्धि), दुर्भगत्रिक (दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय नामकर्म), अनन्तानुबन्धी-चतुष्क (अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ), मध्यम-संस्थान-चतुष्क' (न्याग्रोधपरिमण्डल, सादि संस्थान, कुब्जक और वामन-संस्थान), मध्यम-संहनन-चतुष्क (ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलिका-संहनन) तथा नीच गोत्र, उद्योत नाम, अप्रशस्त, विहायोगतिनाम और स्त्रीवेद, वज्रऋषभनाराच संहनन, मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु), अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और औदारिक द्विक (औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग) इस प्रकार २१+४+१०=३५ कर्मप्रकृतियाँ मिथ्यात्व-अविरति बन्ध-द्वय-हेतुक हैं। जहाँ तक मिथ्यात्व और अविरति हो, वहाँ तक इन प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनके अभाव में बन्ध का भी अभाव हो जाता है। स्पष्ट शब्दों में- पहले गुणस्थान में ये सब प्रकृतियाँ मिथ्यात्व से और दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थानों में अविरति से बांधी जाती हैं।
इस प्रकार पूर्वोक्त सातावेदनीय की एक, नरकत्रिक आदि सोलह तथा तर्यंचत्रिक आदि पैंतीस एवं तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक, इन
. (क) चउ मिच्छ मिच्छ-अविरइ-पच्चइया, साय-सोल-पणतीसा।
जोग-विणु ति-पच्चइयाहारग-जिण-वज सेसाओ॥५३॥ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ५३ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १७९ से १८९
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