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गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४२७ विच्छेद पहले और दूसरे गुणस्थान में हो जाने से मनुष्यायु और देवायु, ये दो प्रकृतियाँ बन्धयोग्य रहती हैं। तीसरे सम्यग्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में 'सम्मामिच्छादिट्ठी आउयबंधं पि न करेइ' के सिद्धान्तानुसार मनुष्यायु और देवायु का बन्ध नहीं होता था, उन दोनों आयुओं का बन्ध चौथे गुणस्थान में हो सकता है। अतः चौथे गुणस्थान में तीसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य ७४ प्रकृतियों के साथ तीर्थंकरनामकर्म तथा मनुष्यायु और देवायु इन तीन प्रकृतियों के मिल जाने से ७७ कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्य रह जाती हैं। ___ एक बात ध्यान देने योग्य है कि चतुर्थ गुणस्थान में देव और नारक यदि परभव-सम्बन्धी आयु का बन्ध करें तो मनुष्यायु और तिर्यंचायु को बांधते हैं, तथा मनुष्य और तिर्यंच देवायु को बांधते हैं।
(५) पंचम देशविरत गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। चतुर्थ गुणस्थान में बन्धयोग्य जो ७७ प्रकृतियाँ हैं, उनमें से वज्रऋषभनाराच संहनन, मनुष्य-त्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु), अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क (अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध-मान-माया-लोभ), औदारिकद्विक (औदारिकशरीर,
औदारिक अंगोपांग) इन १० प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद चतुर्थ गुणस्थान के अन्त में होने से.पंचम गुणस्थान में बन्धयोग्य ६७ प्रकृतियाँ रहती हैं।१ ।।
पाँचवें आदि गुणस्थानों में मनुष्यभवयोग्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध न होकर देवभवयोग्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। इसलिए मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु, ये तीन प्रकृतियाँ केवल मनुष्यजन्म में तथा वज्रऋषभनाराचसंहनन,
औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग, ये तीन प्रकृतियाँ मनुष्य या तिर्यंच के जन्म में ही भोगनेयोग्य होने से इन ६ प्रकृतियों का बन्ध पांचवें आदि गुणस्थानों में नहीं होता।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों का बन्ध चौथे . गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है, आगे ये गुणस्थानों में नहीं। क्योंकि
कषाय के बन्ध के लिए यह सामान्य नियम है कि जितने गुणस्थानों में जिस कषाय का उदय हो सकता है, उतने गुणस्थानों तक उस कषाय का बन्ध होता है।
पांचवें देशविरत गुणस्थानवर्ती जीव एकदेश संयम का पालन करता है, इसलिए एकदेश-संयम-पालक को 'देशविरत' कहते हैं।
१. (क) सम्मे सगसयरि जिणायुबंधि, वइर नरतिग वियकसाय ।
उरल-दुगंतो देसे, सत्तट्ठी तिय-कसायंतो ॥६॥ -कर्मग्रन्थ भा. २ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २, गा.६ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ५७ से ६० तक
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