________________
४०६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
१+१६+३५+३=५५ प्रकृतियों को एक सौ बीस बंधयोग्य प्रकृतियों में से घटा देने पर पैंसठ प्रकृतियाँ शेष बचती हैं। इन पैंसठ प्रकृतियों का बन्ध त्रिहेतुक है। इन ६५, प्रकृतियों का बन्ध अविरति, कषाय और योग हेतुक इस अपेक्षा से समझना चाहिए कि पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से, दूसरे आदि चार गुणस्थानों में अविरति से, और छठे आदि पांच गुणस्थानों में कषाय से बन्ध होता है। इन तीन हेतुओं के साथ उक्त पैंसठ प्रकृतियों का अन्वय-व्यतिरेक-सम्बन्ध है । जहाँ तक ये तीन हेतु होते हैं, वहाँ तक ये प्रकृतियाँ बन्धती हैं और इन हेतुओं के नहीं रहने पर अगले गुणस्थानों में नहीं बंधती हैं। तथापि पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व की दूसरे आदि चार गुणस्थानों में अविरति की, और छठे आदि पांच गुणस्थानों में कषाय की प्रधानता है और अन्य हेतुओं की अप्रधानता । इस कारण इन गुणस्थानों में क्रमशः केवल मिध्यात्व, अविरति एवं कषाय को बन्ध हेतु कहा है। यह ध्यान रहे कि मिथ्यात्व के समय अविरति आदि तीन हेतु, अविरति के समय कषाय आदि दो हेतु तथा कषाय के समय योगरूप हेतु अवश्य रहता है।
ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक सिर्फ योग रहता है और योग के साथ इन प्रकृतियों का अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है। इसीलिए योग को ग्रहण नहीं किया गया है।
कर्मग्रन्थकार ने आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग) तथा तीर्थंकर नामकर्म इन तीन प्रकृतियों की गणना कषायहेतुक प्रकृतियों में नहीं की है। इसके स्थान पर तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का कारण सिर्फ सम्यक्त्व, तथा आहारक द्विक के बन्ध का कारण सिर्फ संयम को माना है। इसका कारण केवल विशेष हेतु दिखाने का मालूम होता है, किन्तु कषाय का निषेध नहीं; क्योंकि सभी कर्मों के प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध में योग की तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध में कषाय की कारणता सिद्ध है। पंचसंग्रह में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है।
इस प्रकार ११७ प्रकृतियाँ त्रिहेतुक मानी हैं और शेष तीन प्रकृतियाँ सम्यक्त्व तथा संयमबन्ध हेतुक मानी हैं।
इसके विपरीत तत्त्वार्थसूत्र ९ / १ की सर्वार्थसिद्धि टीका में ये तीन प्रकृतियाँ कषायहेतुक मानी गई हैं। पंचसंग्रह ४ / १९ में 'सेसाउ कसाएहिं' पद से तीर्थकर
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ५३ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ० १८१ २. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ ( मरुधरकेसरीजी) गा० ५३ पर विवेचन पृ० १८१
(ख) पंचसंग्रह द्वार ४ गा० २०
(ग) तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि टीका, अ० ९ सू० १
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org