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गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४०३ (२) अविरति वह परिणाम है, जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होता है, और जो चारित्र को रोकता है। (३) कषाय वह परिणाम है, जो चारित्रमोहनीय के उदय से होता है, और जिससे क्षमा, विनय, सरलता, सन्तोष, शान्ति, समता आदि गुण प्रकट नहीं हो पाते या अत्यल्प प्रमाण में प्रकट होते हैं । (४) योग आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द (चांचल्य) को कहते हैं, जो मन, वचन या शरीर के योग्य पुद्गलों के . आलम्बन से होता है । १
मूल बन्धहेतु : उनके भेद और स्वरूप
(१) मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं- (१) आभिग्रहिक, (२) अनाभिग्रहिक, (३) आभिनिवेशिक, (४) सांशयिक और (५) अनाभोग ।
(१) आभिग्रहिक - तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त के प्रति पूर्वाग्रह या पक्षपात रखकर अन्य पक्ष का खण्डन करना । (२) अनाभिग्रहिक - गुणदोष की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को बराबर समझना । (३) आभिनिवेशिक - अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दुरभिनिवेश (दुराग्रह) करना । (४) सांशयिक - ऐसा देव होगा या अन्य प्रकार का, इसी प्रकार गुरु और धर्म के विषय में भी संदेहशील बने रहना । (५) अनाभोग मिथ्यात्व-विचार या विशेष ज्ञान का अभाव, अर्थात् - प्रगाढ़तम मोह की अवस्था। इन पांचों में से आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक ये दो मिथ्यात्व गुरु हैं, और शेष तीन लघु; क्योंकि पूर्व के दोनों मिथ्यात्व विपर्यास रूप होने से तीव्र क्लेश के कारण हैं, और शेष तीन विपर्यासरूप न होने से तीव्र क्लेश के कारण नहीं हैं।
( २ ) अविरति के बारह भेद है । वे इस प्रकार - मन और पांच इन्द्रियों को वश में न रखना, ये ६ तथा पृथ्वीकायिक आदि षट्कायिक जीवों का वध ( हिंसा) करना; ये ६ मिलकर बारह प्रकार हुए।
मन को अपने विषय में स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना मन - अविरति है । इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय से लेकर श्रोत्रेन्द्रिय तक पांचों इन्द्रियों को भी स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना, वश में न रखना पंचेन्द्रिय-अविरति है । पृथ्वीकायिक आदि षट् जीवनिकायों की अविरति को भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए । मृषावाद - अविरति, अदत्तादान - अविरति आदि सब अविरतियों का समावेश भी इन बारह अविरतियों में हो जाता है।
१. कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० १७४
२. मिथ्यात्व के ५, १० और २५ भेदों का स्पष्टीकरण पूर्व निबन्ध में पढ़िये ।
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