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४०२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ लिए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन चार बन्धहेतुओं का निर्देश किया गया है। और इनके माध्यम से जीव की विकास-स्थिति का स्पष्ट बोध हो जाता है। इसलिए जिस गुणस्थान में उक्त चार में से अथवा चार के उत्तरभेदों में से जितने अधिक बन्ध हेतु होंगे, उस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उतना ही अधिक होगा और जहाँ पर ये मूलबन्ध हेतु अथवा बन्धहेतु के उत्तरभेद कम होंगे, वहाँ कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी कम ही होगा। अर्थात्-मिथ्यात्व आदि चार मूल हेतुओं के तथा उनके उत्तरभेदों के कथन की परम्परा पृथक्-पृथक् गुणस्थानों में तरतमता को प्राप्त होने वाले कर्मबन्ध के कारणों का स्पष्टीकरण करने हेतु कर्मग्रन्थों में ग्रहण की गई है।
बन्धहेतुओं के रहने तक उन-उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता रहता है। कर्मप्रकृतियों के बन्ध के सम्बन्ध में एक साधारण-सा नियम यह है कि जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध जितने कारणों से होता है, उतने कारणों के रहने तक ही उन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता रहता है तथा किसी एक बन्धहेतु के कम हो जाने से उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। शेष सब प्रकृतियों का बन्ध होता है। उदाहरणार्थ- मिथ्यात्व-गुणस्थान के अन्त में विच्छेद होने वाली नरकत्रिक आदि पूर्वोक्त १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन चार हेतुओं से होता है। ये चारों बन्धहेतु प्रथम गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहते हैं। अतः उक्त १६ प्रकृतियों का बन्ध भी उस समय तक सम्भव है। चूंकि पहले गुणस्थान से आगे मिथ्यात्व नहीं रहता है, इसलिए नरकत्रिक आदि पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों का बन्ध भी प्रथम गुणस्थान से आगे नहीं होता है। इसी प्रकार अन्यान्य कर्म-प्रकृतियों का बन्ध या विच्छेद बन्धहेतुओं के सद्भाव और विच्छेद पर निर्भर
है।
कर्मों के मूल बन्ध हेतु और उनका स्वरूप कर्मों के मूल बन्ध-हेतु चार हैं- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग। उनका स्वरूप इस प्रकार है
(१) मिथ्यात्व आत्मा का वह परिणाम है, जो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से होता है और जिससे कदाग्रह, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि दोष होते हैं।
१. कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से भावांश ग्रहण, पृ०७१ २. कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से भावांश ग्रहण, पृ० ७२
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