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४०० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ क्षय न होने के कारण केवलद्विक भी नहीं है। इस तरह ५ उपयोगों को छोड़कर शेष सात उपयोग समझने चाहिए।
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में घातिकर्म का अभाव होने से छद्मस्थावस्थाभावी दस उपयोग नहीं होते, सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो ही उपयोग होते हैं।
(४) गुणस्थानों में लेश्या की प्ररूपणा प्रथम से लेकर छठे गुणस्थान तक छह लेश्याएँ हैं। सातवें गुणस्थान में तेज, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ हैं। आठवें से तेरहवें गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में केवल शुक्ललेश्या है। चौदहवें गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं है।
प्रत्येक लेश्या असंख्यात लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण अध्यवसाय-स्थान (संक्लेश-मिश्रित परिणाम) रूप है, इसलिए उसके तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि उतने ही भेद समझने चाहिए। अतएव कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं को छठे गुणस्थान में अतिमन्दतम और पहले गुणस्थान में अतितीव्रतम मानकर छह गुणस्थानों तक उनका सम्बन्ध कहा गया है। सातवें गुणस्थान में आर्त तथा रौद्रध्यान न होने के कारण परिणाम इतने विशुद्ध रहते हैं कि, जिससे उस गुणस्थान में अशुभ लेश्याएँ सर्वथा नहीं होतीं, किन्तु तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। पहले गुणस्थान में तेज और पद्म लेश्या को अतिमन्दतम और सातवें गुणस्थान में अतितीव्रतम, इसी प्रकार शुक्ललेश्या को पहले गुणस्थान में अतिमन्दतम और तेरहवें गुणस्थान में अतितीव्रतम मानकर उपर्युक्त रीति से गुणस्थानों में उनका सम्बन्ध बतलाया गया है।
१. (क) ति-अनाण-दुदंसाइम-दुगे अजइ देसि नाण-दंसतिंग।
ते मीसि मीसा समणा, जयाइ केवलदु अंतदुगे॥४८॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ४८ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १६७, १६८ (ग) यह विषय पंचसंग्रह द्वार १ की १९-२० वीं गाथा तथा गोम्मटसार जीवकाण्ड
गा.७०४ में है। २. (क) छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु, इगि छसु सुक्का अयोगि अल्लेसा॥५०॥
-चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ५० विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १७२-१७३ (ग) देखें-विशेषावश्यक भाष्य, वृत्ति गा० २७४१,२७४२ (घ) (प्र०) चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होने के समय द्रव्यलेश्या शुभ और अशुभ दोनों मानी जाती हैं, किन्तु भावलेश्या शुभ ही। प्रश्न है-क्या अशुभ द्रव्यलेश्या वालों
____ (शेष पृष्ठ ३९६ पर)
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