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३१८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
गुणस्थानवर्ती साधक ही अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त करता है, अन्य नहीं। अप्रमत्त संयत गुणस्थान की समय स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक की होती है। उसके पश्चात् वे मुनि या तो आठवें गुणस्थान में पहुँच कर उपशम क्षपक श्रेणी ले लेते हैं, या फिर छठे गुणस्थान में आ जाते हैं। प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और सभी का सामूहिक काल भी अन्तर्मुहूर्त है। कुछ आचार्यों के मतानुसार-प्रमत्त गुणस्थान भी अन्तर्मुहूर्त का है, और अप्रमत्त गुणस्थान भी अन्तर्मुहूर्त का है। परन्तु प्रमत्त गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त बड़ा है, जबकि अप्रमत्त गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त छोटा है। इस कारण प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में उक्त दोनों ही गणस्थानों में आवागमन देशोन-कोटिपूर्व तक चलता रहता है। परन्तु अप्रमत्त गणस्थान के सभी अन्तर्मुहूर्त कालों का योग (जोड़) एक बड़ा अन्तर्मुहूर्त होता है. और एक अन्तर्मुहूर्त-न्यून बाकी का सारा काल प्रमत्त गुणस्थान की स्पर्शना में जाता है। .
वर्तमानकाल में सातवें से ऊपर में गुणस्थानों की पात्रता नहीं चूंकि सातवें गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ने के लिए जो उत्तम संहनन तथा पात्रता चाहिए, उसका वर्तमानकाल में अभाव होने से कोई भी साधु-साध्वीगण सातवें से ऊपर के गुणस्थानों में नहीं चढ़ सकता। तथा सातवें से बारहवें गुणस्थान का काल परम समाधि का है। वह परम समाधि की दशा छद्मस्थ जीव को अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकती। इसलिए भी सातवें से ऊपर के गुणस्थानों को प्राप्त नहीं कर सकता।
(८) अपूर्वकरण : निवृत्ति बादर गुणस्थान : एक चिन्तन इस गुणस्थान मे जो 'निवृत्ति' शब्द है, उसका अर्थ है-भेद। निवृत्ति के साथ 'बादर' शब्द का एक अर्थ यह भी है कि जिस गुणस्थान में अप्रमत्त आत्मा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय इन तीन कषायचुतष्टय रूपी बादर-कषायों की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को भी निवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं। निवृत्ति बादर और अनिवृत्ति बादर, इन दोनों गुणस्थानों में दसवें
१. (क) आत्म तत्व विचार, पृ. ४७९
(ख) गोम्मटसार गा. ४५ (ग) स्वस्थानाप्रमत्तः सातिशया प्रमत्तश्चेति द्वौ भेदौ।।
-गोम्मटसार (जीवकाण्ड) टीका गा. ४५ (घ) जैन सिद्धान्त (प. कैलाशचन्द्र जी जैन) पृ.८०, ८१ (ङ) चौद गुणस्थान पृ. १२९ (च) जैन आचार : स्वरूप और सिद्धान्त पृ. १६३
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