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३८८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
योगवेत्ता जैनाचार्यों की दृष्टि में : तीन अवस्थाएँ
योगवेत्ता जैनाचार्यों ने चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की गणना सम्प्रज्ञातयोग में तथा तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान की गणना असम्प्रज्ञात योग में की है। उन्होंने साधना की दृष्टि से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा को क्रमशः पतितअवस्था, साधक-अवस्था और सिद्ध अवस्था कहा है। दूसरी दृष्टि से नैतिकता की अपेक्षा इन तीनों अवस्थाओं को क्रमशः अनैतिकता (Immoral) - अवस्था, नैतिकता (Moral)-अवस्था और अतिनैतिकता ( Amoral) - अवस्था कहा जा सकता है। प्रथम अवस्था वाला प्राणी दुरात्मा या दुराचारी, द्वितीय अवस्था वाला प्राणी महात्मा या सदाचारी और तृतीय अवस्था वाला प्राणी परमात्मा या आदर्शात्मा होता है। ?
योगदर्शन की दृष्टि में चित्त की पांच अवस्थाएँ
पातंजल योगदर्शन में चिंत्त की पांच अवस्थाएँ बताई गई हैं- (१) मूढ़ (२) क्षिप्त, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध । इनके स्वरूप क्रमश: इस प्रकार हैं
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१. मूढ़ - इसमें चित्त तमोगुण प्रधान होता है । इस अवस्था में व्यक्ति अज्ञान, आलस्य और मूढ़ता से घिरा रहता है। न उसमें सत्य को जानने की जिज्ञासा होती है, न ही धर्म के प्रति अभिरुचि होती है और न धन-सम्पत्ति के संग्रह की प्रवृत्ति होती है । उसका समग्र जीवन अज्ञान तथा अनैश्वर्य में ही बीतता है। ऐसी अविकसित अवस्था मनुष्यों और तिर्यंचों में पाई जाती है।
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२. क्षिप्त - इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है । चित्त बाह्य विषयों में फँसा रहता है। वह उसी उधेड़बुन में रहता है। रजोगुण की प्रबलता के कारण अति-प्रवृत्ति करता है और इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और लालसाएँ उसे फुटबॉल की तरह इधर से उधर दौड़ाती हैं, स्थिरता से बैठने नहीं देतीं। जब उसके साथ तमोगुण का मिश्रण होता है, तब अतिलोभ, कामान्धता और क्रूरता की प्रवृत्तियाँ पनपती हैं। किसी समय जब उसका सत्त्वगुण के साथ यत्किंचित् मिश्रण होता है, अच्छी प्रवृत्तियों में लगता है, अच्छे विचार करता है, उसका चित्त अच्छे कार्यों का चिन्तन करता है। यह अवस्था उस संसारी मानव की है, जो संसार मे फंसा है, अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति करता है, विविध प्रकार के उखाड़ - पछाड़ में लगा रहता है।
३. विक्षिप्त - इस अवस्था में सत्त्वगुण प्रधान होता है । रजोगुण और तमोगुण दबे हुए होते हैं, वे गौणरूप से रहते हैं । इस अवस्था में सत्त्वगुण की प्रधानता रहने
१. (क) योगावतार द्वात्रिंशिका, श्लोक १५ से २१
(ख) परमात्म-प्रकाश, गा० १३, १४, १५ व्याख्या
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