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विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३९१ बौद्ध दर्शन में भी आत्मा के विकासक्रम के बारे में चिन्तन किया गया है। उसमें आत्मा की संसार और मोक्ष (निर्वाण) आदि अवस्थाएँ मानी हैं। स्वरूपोन्मुख होने से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक की स्थिति का वर्णन 'मज्झिमनिकाय' आदि ग्रन्थों में है। त्रिपिटक में आत्मिक विकास का विशद वर्णन उपलब्ध होता है। जिसमें विकास की ६ स्थितियाँ बताई गई हैं-(१) अन्ध-पथुजन, (२) कल्याण-पुथुज्जन, (३) सोतापन्न, (४) सकदागामी, (५) औपपात्तिक और (६) अरहा।
मज्झिमनिकाय में धर्मानुसारी आदि पाँच अवस्थाओं का स्पष्ट वर्णन है। वे इस प्रकार हैं-(१) धर्मानुसारी, (२) सोतापन, (३) सकदागामी, (४) अनागामी, और (५) अरहा। - मालूम होता है, 'त्रिपिटक' में उक्त अन्धपुथुज्जन और कल्याण-पुथुजन ये दो भेद उन सामान्य मानवों के हैं, वे मज्झिमनिकाय में उक्त 'धर्मानुसारी' से पूर्व की भूमिका को सूचित करते हैं; क्योंकि अंधपुथुज्जन और कल्याणपुथुजन में दीघनिकाय के अनुसार निम्रोक्त दसों प्रकार की संयोजनाएँ (बन्ध के मुख्य कारण) होती हैं। लेकिन इन दोनों में अन्तर यह है कि अन्धपुथुज्जन को आर्यदर्शन और सत्संग प्राप्त नहीं होता, जबकि दूसरे कल्याणपुथुजन को वह प्राप्त होता है। परन्तु दोनों ही निर्वाण मार्ग से पराङ्मुख हैं। दस प्रकार की संयोजनाएँ (बन्धन) ये हैं(१) सक्कायदिठिं, (२) विचिकच्छा, (३) सीलव्वत-परामास, (४) कामराग, (५) पटीघ, (६) रूपराग, (७) अरूपराग, (८) मान, (९) उद्धच्च, और (१०)
अविज्जा। . इनके पश्चात् मज्झिमनिकाय में उक्त 'धर्मानुसारी' का नम्बर है। धर्मानुसारी
जैनाचार्यों द्वारा उक्त मार्गानुसारी या केवल श्रद्धाशील के सदृश है, जो मोक्षमार्ग के अभिमुख हुआ हो, लेकिन उसे प्राप्त न हुआ हो, यह अविरति सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान के सदृश है। मोक्ष (निर्वाण) मार्ग को प्राप्त किये हुए आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के हेतुभूत 'सोतापन्न' आदि चार विभाग हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है
(१) सोतापन्न-जो आत्मा अविनिपात, धर्मानियत और सम्बोधि-परायण हो।
(२) सकदागामी-जो एक ही बार इस लोक में जन्म लेकर मोक्ष जाने वाला हो। . (३) अनागामी या औपपत्तिक (अनावृत्तिधर्मा)-वह होता है, जो इस लोक में जन्म ग्रहण न करके ब्रह्मलोक से सीधे ही मोक्ष जाने वाला हो।
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