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३९२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(४) अरहा- जो समस्त आसवों (आस्रवों) का क्षय करके कृतकार्य हो जाता
है।
धर्मानुसारी आदि पूर्वोक्त ५ अवस्थाओं को मज्झिमनिकाय में पांच प्रकार के बछड़ों से उपमित किया है। धर्मानुसारी आदि पांच अवस्थाओं की तुलना करते हुए कहा है-जैसे क्रमशः तत्कालजात वत्स (बछड़ा), कुछ बड़ा किन्तु दुर्बल वत्स, प्रौढ़ वत्स, हल में जोतने लायक बलवान् बैल और पूर्ण वृषभ, जिस प्रकार उत्तरोत्तर अल्प- अल्पतर श्रम से गंगानदी के तिरछे प्रवाह को पार कर लेते हैं, वैसे ही धर्मानुसारी आदि पूर्वोक्त पांच प्रकार के जीव (आत्मा) भी मार (काम) के वेग को उत्तरोत्तर अल्प- अल्पतर श्रम से जीत सकते हैं ।
बौद्धशास्त्रोक्त पूर्वोक्त १० संयोजनाओं ( कर्मबन्धनों) में से प्रारम्भ की पांच को 'ओरंभागीय' और पिछली पांच को 'उड्ंभागीय' कही गई हैं। पहली तीन अवस्थाओं का क्षय हो जाने पर 'सोतापन्न' अवस्था प्राप्त होती है। इसके बाद राग, द्वेष और मोह शिथिल होने पर तीन संयोजनाओं को क्षय और दो को शिथिल कर देने से 'सकदागामी' अवस्था प्राप्त होती है। पांचों ओरंभागीय संयोजनाओं का क्षय हो जाने पर ‘औपपत्तिक अनावृत्तिधर्मा' अथवा 'अनागामी' अवस्था प्राप्त होती है। तथा दसों संयोजनाओं का क्षय हो जाने पर 'अरहा' पद प्राप्त होता है। यह निरूपण जैनकर्मविज्ञान द्वारा प्ररूपित कर्मबन्ध के क्रमशः क्षय से मिलता-जुलता है। सोतापन्न आदि पूर्वोक्त चार अवस्थाओं का विचार चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के विचारों के समान है, परन्तु कहना चाहिए कि ये चार अवस्थाएँ चौथे से लेकर चौदहवें गुणस्थानों का संक्षिप्त दिग्दर्शनमात्र हैं । २
१. (क) मज्झिमनिकाय (प्रो० सि० वि० राजवाड़े सम्पादित मराठी भाषान्तरित) सू० ६, २२, ४, ४८ (ख) त्रिपिटक
(ग) दीघनिकाय मराठी भाषान्तरित, पृ० १७५ टिप्पणी
(घ) चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ० ५४, ५५
(ङ) दीघनिकाय ( मराठी भाषान्तरित) पृ० १७६ टिप्पणी
(च) द्वितीय कर्मग्रन्थ प्रस्तावना ( मरुधरकेसरीजी), पृ० ३२, ३३ (छ) मज्झिमनिकाय (मराठी भाषान्तरित), पृ० १५६
२. (क) मज्झिमनिकाय (राजवाड़े द्वारा सम्पादित मराठी भाषान्तरित), पृ० १५६ (ख) दीघनिकाय (राजवाड़े - सम्पादित), पृ० १७५ टिप्पणी
(ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ० ५४, ५५
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