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३९० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रबलती रहती है कि वे निःश्रेयस-प्राप्ति में साधक नहीं, बाधक बनते हैं, इन दो अवस्थाओं में आध्यात्मिक विकास नहीं होता। तीसरी विक्षिप्त अवस्था में जब कभी सात्त्विक विषयों में जो यत्किचित् समाधि प्राप्त होती है, उस दौरान भी चित्त की अस्थिरता इतनी अधिक होती है कि उसे एकाग्रता में टिकने नहीं देती, इसी कारण उसे भी योग की कोटि में स्थान नहीं दिया गया है। एकाग्र और निरुद्ध अवस्था के दौरान जो समाधि होती है, उसे 'योग' कहा गया है। और वही आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का क्रम है। इन पांच भूमिकाओं के पश्चात् की स्थिति ही मोक्ष है। .... चित्त की पांच अवस्थाओं और गुणस्थानों में कितना सादृश्य,
कितना विसादृश्य? जैनकर्मविज्ञान-विहित गुणस्थान के साथ जब चित्त की इन पांच अवस्थाओं की तुलना करते हैं, तो यह कह सकते हैं कि आदि की दो अवस्थाएँ प्रथम गुणस्थान की सूचक हैं। तृतीय विक्षिप्त अवस्था मिश्र-गुणस्थान के तुल्य है। चतुर्थ एकाग्र अवस्था विकास की सूचक है और अन्तिम पंचम निरुद्ध अवस्था पूर्ण विकास को अभिव्यक्त करती है। चौथी से पांचवीं अवस्था के बीच में जो विकास की क्रमशः भूमिकाएँ हैं, वे नहीं बताई गई हैं। दूसरी बात- ये अवस्थाएँ चित्तवृत्ति के आधार पर आयोजित हैं। इनमें आत्मा की गौणता स्पष्ट परिलक्षित होती है और इसमें आत्मा की अन्तिम विकास-स्थिति का कुछ भी परिज्ञान नहीं होता, जबकि गुणस्थान का सीधा सम्बन्ध मन, बुद्धि, चित्त और हृदय के साथ नहीं, आत्मा के साथ है। फिर जैनकर्म-विज्ञाननिरूपित गुणस्थानों का क्रम राग, द्वेष, कषाय, विषयविकार, योग, मिथ्यात्वमोह आदि कर्मबन्धजनक कारणों तथा कर्मबन्ध के उत्तरोत्तर ह्रास एवं उपशम, क्षयोपशम
और अन्त में पूर्णतः क्षय करने का है, जिसका इन चित्तवृत्तियों के निरोधक्रम में कहीं अता-पता नहीं है। माना कि चित्तवृत्तियों का निरोध परोक्षरूप से उक्त विकारों
और दोषों को दूर करने का संकेत करता है, परन्तु आत्मा की पूर्णतः शुद्धि केवल चित्तवृत्ति के निरोध से नहीं होती, उसके लिए विकास की क्रमिक अवस्थाओं को अपनाना आवश्यक होता है। अतः जैनकर्म-विज्ञान प्ररूपित गुणस्थानों के साथ इन चित्तवृत्तियों की आंशिक तुलना हो सकती है, पूर्णरूप से नहीं।
१. (क) योगदर्शन पाद १, सूत्र १ के भाष्य तथा टीका के आधार पर . __(ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि), पृ० १७६ २. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि), पृ० १७७
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