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विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३८७
७. सुषुप्तक- यह भूमिका प्रगाढ निद्रावस्था में होती है, इसमें जड़ सी स्थिति हो जाती हैं और कर्म मात्र वासना के रूप में रहे हुए होते हैं ।
इन सात प्रकार की अज्ञानमय भूमिकाओं में तीसरी से लेकर सातवीं तक की भूमिका स्पष्टरूप से मानव - निकाय में होती है।
ज्ञान की सात भूमिकाएँ इस प्रकार हैं
१. शुभेच्छा - आत्मावलोकन की वैराग्यमय इच्छा।
२. विचारणा - शास्त्र एवं सज्जनों के संसर्गपूर्वक वैराग्याभ्यास के कारण सदाचार में प्रवृत्ति |
३. तनुमांनसा - शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का घटना ।
४. सत्त्वापत्ति - सत्य और शुद्ध आत्मा में स्थिर होना ।
५. असंसक्ति - असंगरूप परिपाक से चित्त में निरतिशय आनन्द प्रादुर्भूत होना ।
६. पदार्थाभाविनी - इसमें बाह्य और आभ्यन्तर सभी पदार्थों पर से इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। शरीरयात्रा केवल दूसरों के प्रयत्नों को लेकर चलती है।
७. तूर्यगा- भेदभाव का भान बिलकुल भूल जाने से एकमात्र स्वभावनिष्ठा में स्थिर रहना । यह भूमिका जीवन्मुक्त की है। देहमुक्ति के पश्चात् विदेहमुक्त की भूमिका तूर्यातीत कहलाती है।
पूर्वोक्त सात अज्ञान की भूमिकाओं में अज्ञान का प्राबल्य होने से उन्हें अविकास क्रम में और ज्ञान की सात भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञान की वृद्धि होने से उन्हें विकासक्रम में गिना जा सकता है। ज्ञान की सातवीं भूमिका में विकास पूर्ण कला में पहुँच जाता हैं। उसके पश्चात् की स्थिति मोक्ष की मानी जाती है ।
कतिपय विद्वानों ने इन भूमिकाओं की तुलना मिथ्यात्व और सम्यक्त्व कीं अवस्थाओं से की है, परन्तु हमारे नम्र मतानुसार संख्या की दृष्टि से भले ही गुणस्थानों के साथ इनकी तुलना की जाए, किन्तु क्रमिक विकास की दृष्टि से गुणस्थानों के साथ इनकी समानता की संगति नहीं बैठती । २
१. योगवाशिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११८, श्लोक ५/१५
२. जैन आचार (डॉ० मोहनलाल मेहता), पृ० ३९
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