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३८४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
लिए प्रेरित करते हैं। जब उनका जीवनकाल (आयुष्य) अत्यन्त अल्प रह जाता है, तब वे विहार, देशना आदि समस्त क्रियाओं का निरोध कर पूर्णतया आत्मस्थ हो जाते हैं। फिर एक लघु अन्तर्मुहूर्त काल में अवशेष रहे हुए आयुष्य, नाम, गोत्र और वेदनीय, इन चार अघातिकर्मों (भवोपग्राही कर्मों) की समस्त प्रकृतियों का क्षय करके नित्य, निरंजन, निराकार, शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं। इस अवस्था को अन्य दार्शनिकों ने 'निर्गुण' या निराकार परब्रह्म के नाम से अभिहित किया है। जैसे धान्य के ऊपर का छिलका दूर हो जाने से व्यक्त चावल में अंकुरोत्पत्ति की शक्ति नहीं रहती, वैसे ही कर्म-नोकर्मरूपी मल के नष्ट हो जाने से पूर्ण विशद्धरूप में, व्यक्त आत्मा-सिद्ध परमात्मा का भी भवांकुर पूर्णतया विनष्ट हो जाता है और वे अपुनरागम स्थिति में सदैव परमात्मपद में सिद्ध-मुक्त रूप में स्थित रहते हैं। .
__ आध्यात्मिक विकास-क्रम का निष्कर्ष निष्कर्ष यह है कि चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त परम-आत्मा अपने यथार्थरूप में विकसित होकर सदा के लिए आत्मस्वरूप में सुस्थिर हो जाता है। इसी को सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परमात्मदशा या परमात्मपद-प्राप्ति कहते हैं। आत्मा की समग्र शक्तियों का अव्यक्त रहना प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान है और क्रमिक विकास करते हुए परिपूर्ण स्वरूप को व्यक्त करके आत्मस्थ हो जाना चौदहवाँ अयोगि-केवली गुणस्थान है। यह चौदहवाँ गुणस्थान चतुर्थ गुणस्थान में देखे गए परमात्मत्व-ईश्वरत्व का तादात्म्य-रूप है। पहले और चौदहवें गुणस्थानों के बीच जो दूसरे से तेरहवें पर्यन्त गुणस्थान हैं, वे कर्म और आत्मा के बीच होने वाले द्वन्द्वयुद्ध के फलस्वरूप क्रमशः प्राप्त होने वाली उपलब्धियों के नाम हैं। इन्हें ही बहिरात्मा आदि तीन अवस्थाओं में वर्गीकृत करके जीवों के आध्यात्मिक विकास का क्रम बतलाया गया है।.
चौदह गुणस्थानों में से किसमें कौन-सा ध्यान?' जीव पहले से अन्तिम गुणस्थान तक में से किसी भी गुणस्थानवर्ती क्यों न हो, ध्यान से रहित नहीं होता, क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, जबकि ध्यान उसी का चिन्तनात्मक रूप है। सामान्यतया ध्यान के दो प्रकार हैं-शुभ और अशुभ। विशेषतया शास्त्रों में ध्यान के चार भेद बताये गए हैं-(१) आर्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्म-ध्यान और (४) शुक्लध्यान। इन चारों में से पहले दो अशुभ हैं, और पिछले दो शुभ हैं। पौद्गलिक (भौतिक) दृष्टि की मुख्यता को लेकर, अथवा आत्मविस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टि को गौण करके आत्मानुसन्धान-दशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ ध्यान -संसार का १. द्वितीय कर्मग्रन्थ विवेचन प्रस्तावना (मरुधरकेसरीजी म.), पृष्ठ २९, ३०
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