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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३४९ होते हैं; और आगे के आठ गुणस्थान चारित्रमोह के क्षयोपशम आदि से निष्पन्न होते
चौदह गुणस्थानों में उत्तरोत्तर दर्शन-चारित्रशक्ति की विशुद्धि तात्पर्य यह है कि चौदह गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा द्वितीय, द्वितीय की अपेक्षा तृतीय, इस प्रकार पूर्व-पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थान में विकास की मात्रा अधिक रहती है। आत्मिक विकास की न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है। स्थिरता कहें, समाधि कहें, अन्तर्दृष्टि कहें, स्वभाव-रमणता कहें या आत्मोन्मुखता कहें, बात एक ही है। वस्तुतः आत्म-स्थिरता का तारतम्य दर्शनशक्ति और चारित्रशक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर आधारित है। दर्शनशक्ति का जितना अधिक विकास, विशुद्धि और स्पष्टता, उतना ही अधिक आविर्भाव सत्श्रद्धा, सद्रुचि, सद्भक्ति, सन्निष्ठा या सत्य के प्रति सत्कारपूर्वक सदाग्रह का होता है। दर्शनशक्ति का विकास होने पर ही चारित्र-शक्ति का विकास अनायास ही होने लगता है। साथ-साथ जैसे-जैसे उत्तरोत्तर चारित्र-विशुद्धि होने लगती है; वैसे-वैसे आत्म-स्थिरता की मात्रा भी अधिकाधिक होने लगती है। फलतः क्षमा, मार्दव, आर्जव, शील, सत्य, सन्तोष, गाम्भीर्य, इन्द्रियजय आदि चारित्रगुण भी प्रादुर्भूत होते रहते हैं। दर्शनशक्ति या चारित्रशक्ति की विशुद्धि की वृद्धि-हास उन-उन शक्तियों के प्रतिबन्धक (निरोधक) संस्कारों की न्यूनाधिकता या मन्दता-तीव्रता पर निर्भर है। प्रथम तीन गुणस्थानों में दर्शनशक्ति और चारित्रशक्ति का विकास इस कारण नहीं होता कि उनमें उन शक्तियों के प्रतिबन्धक संस्कारों की तीव्रता या अधिकता है। चतुर्थ आदि गुणस्थानों में वे ही प्रतिबन्धक संस्कार कम (मन्द) होते जाते हैं। इससे उन गुणस्थानों से पूर्वोक्त उभयशक्तियों का क्रमशः विकास प्रारम्भ हो जाता है। यही कारण है कि समवायांग में जीवस्थानों (गुणस्थानों) की योजना (रचना) कर्म-विशुद्धि की मार्गणा-गवेषणा के आधार पर की गई है।
१. (क) कर्मग्रन्थ भाग ४ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ. ११-१२ र (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ प्रस्तावना (मरुधरकेसरी), पृ. २५-२६
(ग) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप से भावांश ग्रहण , पृ. १४३-१४४ (घ) एदे भावा णियमा, दंसणमोहं पडुच्च भणिदा हु।
चारित्तं नत्थि जदो अविरद-अंतेसु ठाणेसु॥
देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमिय-मानो दु। . सो खलु चारित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरिं॥ गोमट्टसार गा.-१२-१३ २. कर्मग्रन्थ भाग ४ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ.७-८
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