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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३७१ है, तथापि बीच-बीच में विविध प्रमाद-भाव आकर उसकी शान्ति की अनुभूति में विक्षेप डालते हैं, उसकी शान्ति भंग कर देते हैं, जिसे वह सहन नहीं कर सकता। अतः सर्वविरतिजनित आत्मशान्ति के साथ-साथ अप्रमादजनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल भावना से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करता है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल चिन्तन-मनन के सिवाय अन्य समस्त प्रवृत्तियों का त्याग कर देता है। यद्यपि संयमानुकूल दैहिक व सामाजिक प्रवृत्तियाँ करता है, परन्तु उन्हें यतनापूर्वक, ज्ञाता-द्रष्टा बनकर, अप्रमत्तभाव से करता है। यह अप्रमत्त-संयत नामक सप्तम गुणस्थान का स्वरूप और प्राप्तिक्रम है।
परन्तु इस गुणस्थान में एक ओर से अप्रमादजन्य उत्कट आत्मिक सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए उत्तेजित करता है, जबकि दूसरी
ओर, प्रमादजन्य पूर्ववासनाएँ या परभावों की वृत्तियाँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी आत्मा कभी तो प्रमाद के झूले में झूलने लगता है, कभी अप्रमाद की जागृति के झूले में। अर्थात्-वह कभी छठे और कभी सातवें गुणस्थान में अनेक बार आवागमन करता रहता है। जिस प्रकार भंवरजाल में या वात्याचक्र में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इधर चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के दौरान विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है। ___ प्रमाद के साथ होने वाले इस आन्तरिक भाव-संग्राम में युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि अपना चारित्रबल प्रबलरूप से प्रकट करता है, तो फिर वह प्रलोभनों, भयों, मदों, विषयासक्ति, राग या द्वेष या कषांय आदि के रूप में आये हुए प्रमाद के विभिन्न रूपों को पार कर विशिष्ट अप्रमत्त अवस्था प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था को पाकर वह ऐसी आत्मशक्ति को बढ़ाने की तैयारी करता है, जिससे शेष रहे-सहे मोहबल को भी क्षीण किया जा सके। अवशिष्ट मोह के साथ होने वाले भावी संग्राम के लिये की जाने वाली तैयारी की इस भूमिका को आठवाँ गुणस्थान कहते हैं। ... इस गुणस्थान को पा लेने पर पहले कभी नहीं हुई, ऐसी आत्म-विशुद्धि हो जाती है। इस कारण कोई-कोई विकासगामी आत्मा तो मोह के संस्कारों के प्रभाव को क्रमशः दबाता (उपशान्त करता) हुआ आगे बढ़ता है और अन्त में उसे बिलकुल ही उपशान्त कर देता है। जबकि विशिष्ट आत्मशुद्धि वाला कोई अन्य 'साधक ऐसा भी होता है, जो मोह के संस्कारों को क्रमशः जड़मूल से उखाड़ता हुआ
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी), पृ. २२, २३
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