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विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३८१ आध्यात्मिक विकासक्रमः संक्षेप में तीन अवस्थाओं में
इस विराट् विश्व में अनन्त आत्माएँ हैं, उनके आध्यात्मिक विकास या ह्रास को व्यक्तिशः न बताकर १४ वर्गों में चौदह भूमिकाओं या कक्षाओं में वर्गीकृत किया गया है। पूर्वोक्त १४ गुणस्थानों के द्वारा समस्त आत्माओं की जिन चौदह अवस्थाओं का विचार किया गया है, उनका तथा उनके अन्तर्गत संख्यातीत अवान्तर अवस्थाओं का वर्गीकरण करके अध्यात्म विकास की दृष्टि से जैनदर्शन में उनका संक्षेप में तीन अवस्थाओं में वर्गीकरण किया गया है- (१) बहिरात्म - अवस्था, (२) अन्तरात्मअवस्था और (३) परमात्म- अवस्था । प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थान बहिरात्मअवस्था के व्यक्तरूप हैं, चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें तक के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था के व्यक्तरूप हैं, तथा तेरहवाँ - चौदहवाँ गुणस्थान परमात्मअवस्था के व्यक्तरूप हैं ।
पहली बहिरात्म-अवस्था में आत्मा का वास्तविक शुद्धरूप मोहकर्म की दोनों शक्तियों से अतीव आच्छन्न रहता है, जिसके कारण आत्मा मिथ्याध्यास वाला होकर पौद्गलिक विलासों को ही सर्वस्व मान लेता है और उन्हीं की प्राप्ति के लिए समग्र शक्ति का व्यय करता है।
दूसरी अन्तरात्म-अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो पूर्णतया व्यक्त नहीं होता, परन्तु उसके ऊपर का आवरण गाढ़ न होकर उत्तरोत्तर शिथिल, शिथिलतरं और शिथिलतम होता जाता है। जिसके फलस्वरूप उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासों से हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसी कारण उसकी दृष्टि में शरीर आदि की जीर्णता और पौष्टिकता, अपनी (आत्मा की) जीर्णता और पौष्टिकता या नवीनता प्रतीत नहीं होती। यह अन्तरात्म- अवस्था ही तीसरी परमात्म- अवस्था का दृढ़ सोपान है।.
तृतीय परमात्म-अवस्था में आत्मा का वास्तविक शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। अर्थात्-उसके ऊपर लगे हुए समस्त कर्मों के घने आवरण सर्वथा विलीन हो जाते हैं।
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ० २९, ३० (ख) बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च त्रयः ।
कायाधिष्ठायक ध्येयाः प्रसिद्धा योगवाड्मये ॥ १७॥ अन्ये मिथ्यात्व - सम्यक्त्व - केवलज्ञान भागिनः । मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तस्तेत्व योगिनि ॥ ८ ॥
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- योगावतार द्वात्रिंशिका
(शेष पृष्ठ ३७७ पर)
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