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विविध दर्शनों में आत्मविकास की
क्रमिक अवस्थाएँ
आत्मिक गुणों की शुद्धि की तरतमतानुसार कर्मबन्ध से उत्तरोत्तर मुक्ति गुणस्थान के १४ प्रकारों के स्वरूप को जानने और विश्लेषण करने से जीव को आध्यात्मिक विकास की व्यवस्थित प्रणाली के स्पष्ट दर्शन होते हैं कि पूर्व-पूर्व के गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के गुणस्थान में ज्ञान, दर्शन आदि आत्मिक गुणों की शुद्धि अधिकाधिक बढ़ती जाती है। फलतः आगे-आगे के गुणस्थानों में अशुभप्रकृतियों की अपेक्षा प्रायः शुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है। तत्पश्चात् क्रमशः शुभप्रकृतियों का बन्ध भी रुक जाने से जीवमात्र के लिए प्राप्त करने योग्य शुद्ध, परमशुद्ध, प्रकाशमान आत्मरमणता रूप अथवा स्वरूप-स्थिति रूप साध्य-परमात्मपद प्राप्त हो जाता है।
आत्मा का विकास क्रमः कर्मक्षय-पुरुषार्थ का फल पूर्व प्रकरण में जिन चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विशद विश्लेषण किया गया है, उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि आत्मा का यह विकासक्रम स्वयं उस आत्मा के कर्मक्षय रूप पुरुषार्थ का फल है, न कि किसी ईश्वर या किसी अन्य देवी-देव या शक्ति के द्वारा प्रदत्त या कृत है। क्योंकि दूसरी आत्मा किसी अन्य आत्मा के लिए आत्मगुणों का विकास करे, यह असम्भव है। हाँ, उसमें निमित्त, प्रेरक या मार्गदर्शक बन सकता है। परन्तु अपने आध्यात्मिक विकास या ह्रास का कर्ता स्वयमेव आत्मा ही है, अन्य नहीं। इससे यह भी स्पष्ट है कि जैनदर्शन में कोई अनादि सिद्ध परमात्मा नहीं है, प्रत्येक प्राणी अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है, परमात्मपद प्राप्त कर सकता है।
१. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि)
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