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३७४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ भी देखा जाता है, जो एक बार हार जाता है, वह उत्साह और साहसपूर्वक पूर तैयारी के साथ हराने वाले विपक्षी या विरोधी को फिर से हरा देता है। .. .
तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में आत्मा के
. सभी शक्तियों का पूर्ण विकार परमात्म भाव का सुराज्य पाने में मुख्य रूप से बाधक है-मोह। जिसे नष्ट करना अन्तरात्म भाव के विशिष्ट विकास पर आधारित है। मोह का सर्वथा क्षय होते ही अन्य घातिकर्मों के जो आवरण हैं, वे भी उसी तरह क्षीण हो जाते हैं, जिस तरह सेनापति के मारे जाने के बाद उसके अनुगामी सैनिकगण भी तितर-बितर हो जाते हैं, पराजित हो जाते हैं। तदनन्तर विकासगामी आत्मा शीघ्र ही परमात्म भाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात-सच्चिदानन्द-स्वरूप, को पूर्णतया व्यक्त करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख और अनन्तवीर्य आदि का लाभ प्राप्त कर लेता है। जैसे-पूर्णिमा की रात्रि में निरभ्र चन्द्र अपनी सम्पूर्ण शुभ्र कलाओं से प्रकाशित होता है, उसी तरह आत्मा भी अपनी समग्र शक्तियों से पूर्णतया प्रकाशित-विकसित हो जाती है। इसी भूमिका को कर्मविज्ञान में सयोगी केवली नामक तेरहवाँ गुणस्थान कहते हैं।
चौदहवें अयोगि केवली गुणस्थान का स्वरूप और कार्य इस गुणस्थान में जितना आयुष्य है, वहाँ तक रहने के पश्चात् साधक आत्मा दग्ध रज्जु (जली हुई रस्सी) के समान आवरणों, अर्थात्-अप्रधानभूत अघातिकर्मों को उड़ाकर फैंकने के लिए सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिशुक्लध्यानरूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों (प्रवृत्तियों) का सर्वथा निरोध (संवर) कर देता है। यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठारूप चौदहवाँ अयोगिकेवली गुणस्थान है। इसमें आत्मा समुच्छिन्न-क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में पहले सूक्ष्म और फिर स्थूल शरीर के त्यागपूर्वक व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों से लोकोत्तर अपुनरावृत्ति रूप स्थान को प्राप्त कर लेता है। इसी चौदहवीं भूमिका को हम निर्गुण ब्राह्मी स्थिति कहते हैं। यही सर्वांगी पूर्णता और पूर्ण कृतकृत्यता है। यही परम पुरुषार्थ द्वारा साध्य की सिद्धि है। यही अपुनरावृत्ति सिद्धिगति नामक स्थान है। इसे पाने के बाद किसी भी प्रकार का मोह नहीं रहता।
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी) से साभार, पृ. २४ से २६ तक
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