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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३६९ बल्कि पारमार्थिक परम आनन्द उस जीव को प्राप्त होता है, जिसे अनादि संसार के मिथ्यात्वरूपी भयंकर रोग से त्रिकरण-रूपी महौषध से मिथ्यात्व की निवृत्तिपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। कहा भी है-आत्मा के अपूर्व वीर्योल्लास के प्रभाव से ग्रन्थि भेद करके सम्यक्त्व प्राप्त करने का उस महान् आत्मा को वैसा ही तात्विक आनन्द प्राप्त होता है, जैसा व्याधिग्रस्त व्यक्ति को महौषध से रोग मिट जाने पर होता
(३) सचमुच, अपूर्वकरण रूप तीक्ष्ण भाववज्र द्वारा महाकष्ट से विदारणीय दुर्भेद्य रागद्वेष की सघन ग्रन्थि का भेदन करके जीव जब आगे बढ़ कर मिथ्यात्वतिमिर का नाश करता है और सम्यक्त्व-सूर्योदय का प्रकाश अन्तरात्मा में फैल जाता है, तब उसे अनुपम, अभूतपूर्व एवं अवर्णनीय आनन्द प्राप्त होता है।
जैसे-भीष्म ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के प्रखर ताप से निर्जन वन में यात्रा करता हुआ कोई यात्री गर्मी और पसीने से घबरा रहा हो, प्यास से कंठ सूख रहा हो, ऐसे समय में सहसा उसे किसी सघन वृक्ष की छाया तथा शीतल मधुर जल मिल जाए तो कितना आनन्द होगा? ठीक इसी तरह अनादिकालीन संसार रूपी विकट वन में जन्म-मरणादि के दुःखों से आक्रान्त, तथा मिथ्यात्व और कषाय के ताप से संतप्त, तृष्णारूपी. तृषा से पीड़ित भव्यजीवरूपी यात्री को अनिवृत्तिकरण रूपी शान्तिदायी वृक्ष की शीतल छाया मिलते ही तथा सम्यक्त्वरूपी मधुर शीतल जल मिलते ही असीम आनन्द की प्राप्ति होती है। यह आनन्द प्रथम बार ही प्राप्त होने के कारण अनिर्वचनीय होता है। चतुर्थ गुणस्थान-प्राप्ति से आगे की भूमिका द्वारा स्वरूप
स्थिरता प्राप्ति का विश्वास ; निष्कर्ष यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपदर्शन हो जाने से आत्मा को अपूर्व शान्ति, सन्तुष्टि एवं आनन्द की अनुभूति होती है। उस विकासगामी आत्मा को यह विश्वास हो जाता है कि मेरे साध्य की सिद्धि विषयक जो भ्रम था, वह दूर हुआ।
१. (क) कर्म की गति न्यारी, भा. १, पृ. ८१, ८२ .. (ख) जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये।
संदर्शनं तथैवाऽस्य ग्रन्थिभेदेऽपरे जगुः॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः। सदृश्याद्यभिभवे यद्वत् व्याधितस्य महौषधात् ॥ तया च भिन्ने दुर्भेदे कर्मग्रन्थि-महाबले। तीक्ष्णेन भाववज्रेण बहुसंक्लेशकारिणि॥ .
-योगबिन्दु
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