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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३६५
तीन करणों में अपूर्वकरण की दुर्लभता और महत्ता तीन प्रकार के करणों द्वारा होने वाली आत्मशुद्धियों में दूसरी अपूर्वकरण नामक शुद्धि ही अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को रोकने का अत्यन्त कठिन कार्य इसी के द्वारा किया जाता है; जो आसान नहीं है। एक बार इस कार्य में सफलता मिलने पर विकासगामी आत्मा चाहे ऊपर की किसी भूमिका से गिर पड़े, फिर भी वह पुनः अपने आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप-रूपी लक्ष्य को कभी न कभी प्राप्त कर लेता है। इसे स्पष्ट रूप से समझने के लिए एक रूपक लीजिए
अपूर्वकरण रागद्वेष की तीव्रतम ग्रन्थिभेदन में सर्वाधिक उपयोगी एक वस्त्र है, जिस पर मैल के अलावा चिकनाहट भी लगी है। उसका मैल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना श्रमसाध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट का दूर करना। अगर चिकनाहट एक बार दूर हो जाय तो बाकी का मैल दूर करने में अथवा फिर से लगे हुए गर्दे को दूर करने में विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता और वस्त्र को उसके असली स्वरूप में लाया जा सकता है। ऊपर-ऊपर का मैल दूर करने में जो बल अपेक्षित है, उसके समान है-यथाप्रवृत्तिकरण। चिकनाहट दूर करने वाले विशेष बल व श्रम के प्रयोग के समान है-अपूर्वकरण; जो कि चिकनाहट के समान रागद्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि को शिथिल करता है। बाकी बचे हुए मैल को, अथवा चिकनाहट दूर होने के बाद फिर से लगे हुए मैल को कम करने वाले बल-प्रयोग के समान हैअनिवृत्तिकरण। पूर्वोक्त तीनों प्रकार के बलप्रयोगों में चिकनाहट दूर करने वाला बल प्रयोग ही विशेष महत्वपूर्ण है।
अपूर्वकरण बलप्रयोग ही प्रधान क्यों? : एक चिन्तन __एक और उदाहरण के द्वारा इसे समझिए-किसी राजा ने अपनी रक्षा के लिए
अपने अंगरक्षकों को तीन भागों में विभाजित किया। उनमें से दूसरा विभाग, शेष दो विभागों से प्रबल था। बड़ा हमला होने पर उसे परास्त करने में उसे ही विशेष बलप्रयोग करना पड़ता था। इसी प्रकार दर्शनमोह को जीतने के लिए विकासगामी आत्मा को दर्शनमोह के रक्षक रागद्वेष के तीव्र संस्कारों को शिथिल करने हेतु तीन बार बलप्रयोग करना पड़ता है। उनमें से दूसरी बार किया जाने वाला बलप्रयोग ही प्रधान होता है, जिसके द्वारा राग-द्वेष की अत्यन्त तीव्रतारूप ग्रन्थि का भेदन किया जाता है। जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से बलवान् द्वितीय अंगरक्षक द्वारा राजा का बल शिथिल किये जाने पर उस राजा को हराना आसान होता है, इसी प्रकार रागद्वेष
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