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३५८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
जो अपनी शक्ति का यथोचित सावधानीपूर्वक प्रयोग करके उक्त आध्यात्मिक युद्ध में रागद्वेष की निविड़ ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न करने में सफल होते हैं और दर्शनमोह की शक्ति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। किसी भी राग-द्वेष, काम-क्रोधादि मानसिक विकारों (आत्मा के वैभाविक भावों) के साथ द्वन्द्वयुद्ध में इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को प्रायः हुआ करता है । अर्थात् - कभी पराजित होकर पीछे हटने या नीचे गिरने का, कभी प्रतिद्वन्द्विता में डटे रहने का और कभी उन मानसिक विकारों को जीतने का अनुभव प्राय: प्रतिदिन होता रहता है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में त्रिविध वृत्तियों का अनुभव
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में - चाहे वह आर्थिक क्षेत्र हो, धार्मिक या नैतिक क्षेत्र हो, चाहे सामाजिक या राष्ट्रीय क्षेत्र हो, चाहे वह विद्या, धन, कीर्ति या अन्य किसी अभीष्ट लौकिक वस्तु की प्राप्ति का प्रश्न हो, ऐसे अनेक विघ्न या संकट उपस्थित होते हैं, और उनसे संघर्ष करने या उनका सामना करने में पूर्वोक्त तीनों प्रकार की अवस्थाओं का या त्रिविध मनोवृत्तियों का अनुभव प्रायः सबको होता रहता है। ऐसे कठिन प्रसंगों में कुछ लोग तो अनेक कठिनाइयों को देखकर उस प्रयत्न को छोड़ छाड़ कर पीछे हट जाते हैं। कई मैदान में डटे रहते हैं, वे न तो पीछे हटते हैं और न ही कठिनाइयों पर विजय कर पाते हैं । किन्तु कुछ ऐसे मनस्वी होते हैं, जो कठिनाइयाँ देखकर पीछे नहीं हटते, बल्कि उत्साहित होकर प्रबल वेग से उनसे भिड़ जाते हैं और अन्ततोगत्वा उन पर विजय प्राप्त करके ही दम लेते हैं । १
त्रिविध विकासगामियों के मनोभावों का रूपक द्वारा स्पष्टीकरण
एक बार तीन मित्र व्यापार करने के लिए विदेश जा रहे थे। चलते-चलते वे एक घने जंगल में पहुँच गए। थोड़ा-सा आगे बढ़ते ही उनमें से एक-एक मित्र को मार्ग में दो-दो चोर मिले। पहला मित्र दोनों चोरों को देखते ही भाग खड़ा हुआ । दूसरा मित्र भागा तो नहीं, किन्तु डरकर वहीं बैठ गया और चोरों से डर कर उनकी शरण स्वीकार ली। किन्तु तीसरा मित्र जो साहसी था, उसने चोरों से संघर्ष किया। चोरों से लड़कर उसने उन पर विजय प्राप्त की और आगे बढ़ गया, एवं अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच गया।
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलालजी)
(ख) जह वा तिन्नि मणुस्सा जंतइ विपहे सहावगमणेणं ।
वेला इक्कमभीया तुरंति पत्ता य दो चोरा ॥ १२१ ॥ दठ्ठे मग्गतउत्थे ते एगो मग्गओ पडिनियत्तो । बितिओ गहियो, तइओ समइक्कंतो पुढे पत्तो ॥ १२२ ॥
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