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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३६१
तीनों करण कब और कहाँ किये जाते हैं? इस विषय में कहा गया है - (१) ग्रन्थिस्थांन-पर्यन्त आगमन के लिए पहला यथाप्रवृत्तिकरण किया जाता है । (२) ग्रन्थिभेद करते समय रागद्वेष की गांठ का छेदन करने के अभिमुख होने के लिए अपूर्वकरण किया जाता है, इसमें जीव सम्यक्त्वाभिमुख होता है। इसके आगे जीव द्वारा अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसाय रूप तीसरा अनिवृत्तिकरण किया जाता है। जिससे सम्यक्त्व प्राप्त करके ही दम लेता है।
तीनों करणों का ग्रन्थिभेद करने में क्या-क्या कार्य एवं उपयोग हैं ?
पूर्वोक्त भयंकर राग-द्वेष की निविड़ गांठ का भेदन करने के लिए प्रबलतम आत्मिक शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। जो जीव इस प्रकार की प्रबलतम आत्मशक्ति का प्रयोग करके रागद्वेष की ग्रन्थि का भेदन करके दर्शनमोह पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ जाता है, वही मोक्षमार्ग के प्रथम द्वार सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है। परन्तु सभी जीवों में समान शक्ति नहीं होती। कई जीव हार मानकर ग्रन्थिभेद को दुर्भेद्य मानंकर साहस एवं उत्साह से हीन होकर वापस भी लौट जाते हैं और सुखशील बन जाते हैं। कई जीव हार भी नहीं मानते और ग्रन्थि को तोड़ भी नहीं पाते, किन्तु थोड़े-से पस्तहिम्मत होकर वहीं बैठ जाते हैं। इसी तथ्य को तीन चींटियों के रूपक' द्वारा 'विशेषावश्यक भाष्य' में समझाया गया है।
चींटियों के रूपक द्वारा तीन करणों का स्पष्टीकरण
वैसे तो तीन (स्पर्शन, रसना और नासिका) इन्द्रियों वाली चींटियाँ आँखें न होने से सामान्यतया जमीन पर ही चलनी हैं, आँख, कान न होते हुए भी कुछ चींटियाँ वृक्ष के तने (स्तम्भ) पर चढ़ जाती हैं, किन्तु जहाँ जरा भी खतरा हुआ कि वापस लौट जाती हैं। कई साहसी चींटियाँ दीवार के सहारे चढ़ती हैं, किन्तु किले पर पहुँच नहीं पातीं, वहीं आसपास चढ़ती - उतरती रहती हैं। कई इनसे भी बढ़कर साहसी चींटियाँ हैं, जो किले पर चढ़कर वहाँ से उड़ भी जाती हैं। चींटियों की स्वाभाविक गमनागमन प्रवृत्ति की तरह जीव की यथावत् स्वाभाविक मति यथाप्रवृत्तिकरण रूप
१. खिति-साभाविय-गमणं थाणूसयाणं तओ समुप्पयणं । थाणं थाणूसिरे वा ओरूहणं वा मुइंगाणं ॥
खिइ-गमणं पिव पढमं थाणूसरणं व करणमपुव्वं । उप्पयणं पिवततो जीवाणं करप्पमनिवट्टिं ॥ `थाणुव्व गंठिदेसे गठियसत्तस्स तत्थवत्थाणं । ओयरणं पिव तत्तो वि कम्मट्ठ- विवुड्ढी ॥
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- विशेषावश्यक भाष्य
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