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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३५७
___ ग्रन्थिभेद का कार्य कठिनतम : परन्तु असम्भव नहीं यद्यपि ग्रन्थिभेद का कार्य अत्यन्त कठिन है। मोहनीय कर्म की दोनों शक्तियों की प्रबलता के कारण राग-द्वेष की तीव्रतम गांठ (ग्रन्थि) को शिथिल करना भी अतीव कठिन है, उसे तोड़ना तो और भी कठिन है, क्योंकि ऐसी भयंकर निविड़तम ग्रन्थि का भेदन करने में आत्मा को पूर्ण शक्ति लगानी पड़ती है; तथापि परिपक्व तथाभव्य जीव धर्मसम्मुख होने के पश्चात् स्वल्पबोध के कारण मोह की प्रबलतम प्रधान शक्ति दर्शनमोह को छिन्नभिन्न करने की नहीं, तो उसे शिथिल या मन्द करने की योग्यता तो प्राप्त कर ही लेता है। रागद्वेष की तीव्रतम विषग्रन्थि यदि एक बार शिथिल या छिन्न-भिन्न हो जाए तो फिर मोहकर्म की प्रधान शक्ति दर्शनमोह को शिथिल होने में देर नहीं लगती। .ग्रन्थिभेद की इस प्रक्रिया में विकासोन्मुख आत्मा और रागद्वेष में द्वन्द्वयुद्ध चलता है। एक ओर रागद्वेष अपनी पूर्णशक्ति का प्रयोग करते हैं, जबकि दूसरी ओर विकासोन्मुख आत्मा उनके प्रभाव को मन्द एवं शिथिल करने के लिए अपने वीर्यबल का प्रयोग करता है। इस आध्यात्मिक युद्ध में, अर्थात्-मनोविकार और आत्मा की प्रतिद्वन्द्वितारूप संग्राम में कभी एक, तो कभी दूसरा विजय प्राप्त करता
मानसिक विकारों के साथ द्वन्द्वयुद्ध के लिये उद्यत
तीन प्रकार के विकासगामी जीव - अनेक विकासगामी आत्मा ऐसे भी होते हैं, जो करीब-करीब ग्रन्थिभेद करने योग्य साहस और बल प्रकट करके भी अन्त में रागद्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर तथा उससे हार खाकर वापस अपनी मूल स्थिति में आ जाते हैं। वे बार-बार बहुत पुरुषार्थ करते हैं, फिर भी रागद्वेष की निविड़ ग्रन्थि को शिथिल करने सक्षम नहीं हो पाते। रागद्वेष पर विजय प्राप्त करना उनके लिये दुष्कर हो जाता है। दूसरे प्रकार के कतिपय विकासोन्मुख आत्मा ऐसे भी होते हैं, जो न तो हार खाकर वापस गिरते या पीछे हटते हैं, और न ही विजय प्राप्त कर पाते हैं। वे चिरकाल तक उक्त आध्यात्मिक संग्राम के मैदान में ही पड़े रहते हैं। किन्तु कुछ आत्मा ऐसे भी होते हैं,
१. (क) भिन्नम्मि तम्मि लाभो, सम्मत्ताईण मोक्खस्स हेऊणं ॥
• सोय दुल्लभो परिस्सम चित्त विधायाई विग्घेहिं ।। १९६॥
सो तत्थ परिस्सम्मई घोर-महासमर-निग्गयाइव्व ।
विनाय सिद्धिकाले जहवा विग्घा तहा सो वि ॥ १९७॥ -विशेषावश्यक भाष्य ... (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलालजी), पृ. १३
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