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३५२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
प्रथम गुणस्थान : स्वरूप, कार्य, प्रभाव दर्शनमोहनीय की प्रबलता के आधार पर ही प्रथम गुणस्थान का नाम रखा गया है- मिथ्यादृष्टि गुणस्थान। यह आत्मा की सर्वथा अध:पतित अवस्था है। इसमें दर्शनमोह की प्रबलता के कारण चारित्रमोह की भी प्रबलता होती है। मोह की उक्त दोनों शक्तियों की प्रबलता के कारण इस भूमिका वाला आत्मा (जीव) की आध्यात्मिक शक्ति सर्वथा गिरी हुई होती है। विपरीत दृष्टि (श्रद्धा) के कारण वह राग-द्वेष-मोह के सर्वथा वशीभूत होकर अनन्त आध्यात्मिक सुख (आनन्द) से वंचित रहता है। इस कारण इस भूमिका वाला जीव चाहे जितना आधिभौतिक उत्कर्ष कर ले, किन्तु तात्त्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होने के कारण उसकी सारी प्रवृत्तियाँ संसाराभिमुखी होती हैं, मोक्षाभिमुखी नहीं। जैसे दिशा-भ्रान्ति वाला मनुष्य पूर्व को पश्चिम मान कर चलता है, किन्तु बहुत गति कर चुकने के बावजूद भी वह अपने लक्ष्य को-इष्ट स्थान को नहीं प्राप्त कर पाता, उसका इतना चलने का सारा श्रम एक तरह से व्यर्थ जाता है, वैसे ही प्रथम गुणस्थान वाला जीव पररूप को स्वरूप, परभाव को स्वभाव या विभाव को आत्मभाव समझ कर मूढतावश उसी को पाने के लिये लालायित रहता है। जैसे मद्यपान किये हुए व्यक्ति को हित-अहित का भान नहीं रहता। मोहरूपी मद्य से मत्त-प्रमत्त एवं उन्मत्त बने हुए मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव को आत्मा के विशुद्ध हित-अहित का भान नहीं होता। आत्मा की इस भूमिका को जैन कर्मविज्ञान में मिथ्यात्व, मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि कहा गया है। जैन आगमों में इसे बहिरात्म-भाव कहा गया है। इस भूमिका के जीव गाढ़ अज्ञान और विपरीत बुद्धि वाले होते हैं।
(पृष्ठ ३५१ का शेष) (ख) ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी, सासण समाइट्ठी, सम्मा-मिच्छाइट्ठी, असंजद
सम्माइट्ठी, संजदासंजदा, पमत्तसंजदा, अपमत्तसंजदा, अपुव्वकरण-पविट्ठसुद्धि-संजदेसु अस्थि उवसमा खवा, अणियट्टि-बादर-सांपराइय-पविट्ठसुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, सुहूम-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था, खीणकसायवीयराय-छदुमत्था, सजोग केवली, अजोग-केवली।
___ -षट्खंडागम १/११/सू०९-२२/१६१-१९२ १. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य देवेन्द्रमुनिजी म.), पृ. १४४ (ख) मद्य-मोहाद् यथा जीवो न जानाति हिताहितम्।
धर्माधर्मो न जानाति, तथा मिथ्यात्व-मोहितम् ॥ -गुणस्थान क्रमारोह गा.८
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