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गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३४५ देने पर भी उससे प्रवाह में न तो विभागीकरण की अमिट रेखा ही बनती है और न उस प्रवाह में किसी प्रकार का विच्छेद ही पड़ता है; ताकि एक भाग दूसरे भाग से अलग किया जा सके; यही बात गुणस्थानों के विषय में समझिये । एक गुणस्थान के साथ दूसरे गुणस्थान की सीमा इस प्रकार संयुक्त है कि वह एक प्रवाह जैसा ही बन गया है । ऐसा होने पर भी आध्यात्मिक विकास के आरोहण क्रम को समझने के लिए, अथवा गुणस्थानक्रम - निरूपण की सुविधा के लिए गुणस्थान को चौदह भागों में विभक्त किया गया है । १
चौदह गुणस्थान चौदह श्रेणियों में विभाजित
इसे यों भी समझा जा सकता है - आत्मा के ज्ञानादि गुणों का विकास यथायोग्य, क्रमशः चौदह श्रेणियों में होता है। इसलिए इन चौदह गुणस्थानों की क्रमश: चौदह श्रेणियाँ बतलाई हैं।
समस्त संसारी जीवों के ज्ञान - दर्शन - चारित्र आदि स्वाभाविक गुण कर्मों के आवरण से न्यूनाधिक रूप से आच्छादित हैं। गुण जितने अंशों में अनावृत होते जाते हैं, उतने - उतने अंश में उन ज्ञानादि स्वाभाविक गुणों के स्थान - अवस्थिति को अथवा तथारूप भेद को गुणस्थानक्रम या गुणस्थान श्रेणी कहते हैं। स्पष्ट शब्दों में- जब प्रतिरोधक कर्म कम हो जाता है, आत्मा के ज्ञानादि गुणों की शुद्धि अधिक प्रकट हो जाती है, लेकिन जब प्रतिरोधक कर्म की अधिकता - प्रबलता होती है, तब ज्ञानादि गुणों की शुद्धि कम हो जाती है। आत्मिक गुणों के इस न्यूनाधिक क्रमिक विकास • की अवस्था को गुणस्थान क्रम कहते हैं । यद्यपि शुद्धि और अशुद्धि से जन्य जीव कें स्वरूपविशेष असंख्य प्रकार के हो सकते हैं, तथापि उन सब स्वरूप - विशेषों का संक्षेप में १४ गुणस्थानों के रूप में अन्तर्भाव हो जाता है।
गुणस्थान की प्रथम श्रेणी में उन जीवों की गणना होती है, जिनकी आत्मा के ज्ञानादि गुणों को कर्मों ने विपुल मात्रा में ढक दिया है। ऐसी सर्वाधिक निकृष्टतम अवस्था प्रथम गुणस्थानवर्ती जीवों की होती है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म निगोद के जीवों को इसी गुणस्थान में गिनाया गया है। उनमें भी ज्ञानादि गुण अत्यन्त अल्पमात्रा में अनावृत रहते हैं। यदि उनमें इतना भी ज्ञानादि का प्रकाश न हो तो वे जीव न रहकर जड़ बन जाते। चेतन और जड़ की भेद रेखा ज्ञानादि गुणों के सद्भाव - अभाव पर से ही आंकी जाती है।
प्रथम श्रेणी के जीवों की अपेक्षा दूसरी-तीसरी श्रेणी के जीव आत्मगुणों के विकास में आगे बढ़े हुए होते हैं। उनकी अपेक्षा चौथी श्रेणी के जीव अधिक उन्नत
१. जैन दर्शन (न्या० न्या० मुनि श्री न्यायविजयजी) पृ. १०५
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